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human Life vs plastic

देश की राजधानी दिल्ली और देश की आर्थिक राजधानी मुंबई समेत भारत में आठ शहर ऐसे हैं, जिनकी रफ्तार कभी ठहरती व थमती नहीं है, लेकिन कुछ ही सालों में प्लास्टिक इनकी रफ्तार पकड़ कर सामने आया है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की अर्थव्यवस्था की दशा दिशा तय करने वाले ये शहर आज मामूली बारिश भी सहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। कुछ ही मिनटों में इनके गली-मुहल्ले डूब जाते हैं, और जनजीवन ठप्प हो जाता है। बड़े शहरों की ड्रिनेज लाईन में लगातार फँसते और बढ़ते प्लास्टिक कचरे को यदि समय रहते नहीं निकाला गया, तो आने वाले समय में यह संकट और भी गहरा हो सकता है। आज चारों ओर बिखरे प्लास्टिक कचरे के चलते ड्रेनेज सिस्टम ध्वस्त होता जा रहा है और जरा-सी बारिश में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो रही है।

चार महानगरों (दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई) समेत बेंगलुरू, हैदराबाद, लखनऊ, देहरादून, रांची और पटना की यदि बात करें तो देश की पाँच फीसदी से ज्यादा आबादी इन्हीं शहरों में रहती है। देश की अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने में भी ये शहर अहम योगदान दे रहे हैं, लेकिन ये शहर भी अब प्लास्टिक के बोझ तले दबे जा रहे हैं। प्रश्न उठता है कि आखिर हमारे शहर कितनी बारिश झेल सकते हैं? पहले देश के दो प्रमुख शहरों की बात करते हैं। हर बार जरा-सी बारिश में पानी-पानी हो जाने वाली मुंबई महज 25 मिलीमीटर प्रतिघंटे की बारिश ही झेल सकती है। इसके बाद शहर में नाव चलाने की नौबत आ जाएगी। इसी तरह देश की राजधानी दिल्ली लगातार 60 मिलीमीटर बारिश को ही झेल सकती है। कुछ दिनों पहले प्रकाशित हुई आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर "ए के गोसाईं" की शोध रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली की ड्रेनेज व्यवस्था को जाम करने का सबसे बड़ा कारण प्लास्टिक कचरा बन चुका है।

प्लास्टिक कचरा उत्पादन में देश की राजधानी आज सबसे ऊपर है तो वहीं आजादी से पहले कभी देश की राजधानी के रूप में पहचाने जाने वाले कोलकाता में कुल प्लास्टिक कचरे का दसवाँ हिस्सा ही रिसाइकिल हो पाता है। इसी तरह से 'सिलीकॉन वैली' के नाम से मशहूर बेंगलुरू-आईटी सेक्टर की वजह से आज दुनिया भर में मशहूर हो चुका है, मगर विकास के साथ-साथ शहर में प्लास्टिक कचरा भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है। इस कारण इसके ड्रेनेज नेटवर्क की क्षमता भी आधी ही रह गई है। सन् 2015 में बाढ़ का दंश झेल चुके चेन्नई के हालात भी ऐसे ही हैं। दिल्ली प्लास्टिक कचरा पैदा करने में सबसे आगे है। यहाँ 60 मिलीमीटर बारिश से ही जलभराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 689.52 टन प्लास्टिक कचरा हर रोज देश की राजधानी में पैदा होता है, लेकिन वहाँ पर रिसाइकिल व्यवस्था बेहद ही कमजोर है। 50 माइक्रोन से कम की प्लास्टिक दिल्ली में प्रतिबंधित है, पर इसका कठोरता से पालन नहीं हो रहा है।

इसी तरह मुंबई 25 मिलीमीटर की बारिश ही झेल सकती है। 9500 मीट्रिक टन कचरा यहाँ रोज निकलता है, जिसमें 3 प्रतिशत प्लास्टिक कचरा शामिल है। मुंबई के 1987 किलोमीटर लंबे खुले नालों में से अधिकांश कचरे की वजह से जाम हो जाते हैं। मुंबई में बरसाती पानी की निकास- प्रणाली 525 किमी ही लंबी है, जो निश्चित रूप से अपर्याप्त है। कोलकाता रिसाइक्लिंग के क्षेत्र में अभी भी पीछे ही है। यद्यपि कोलकाता के ड्रेनेज सिस्टम में 75 मिलीमीटर बारिश झेलने की क्षमता है, तथापि यहाँ के 4-6 फीसदी इलाकों में जलभराव की समस्या प्लास्टिक कचरे से होती है। यहाँ का 5 सदी से ज्यादा कचरा प्लास्टिक से होता है और उस प्लास्टिक कचरे का मात्र दसवाँ हिस्सा ही रिसाइकिल हो पाता है।

बेंगलुरू जैसे बड़े शहर की बात करें तो यहाँ के ड्रेनेज नेटवर्क की क्षमता पहले की तुलना में आधी रह गई है। बेंगलुरू 45 मिलीमीटर की बारिश झेलने में ही सक्षम है; जबकि किसी समय इसकी क्षमता 80 मिलीमीटर बारिश झेलने की हुआ करती थी। अब यहाँ 4000 टन कचरा रोज पैदा होता है, जिसमें 20 फीसदी कचरा प्लास्टिक का होता है। चेन्नई महानगर, जिसकी बारिश सहने की क्षमता मात्र 30 मिलीमीटर है। यहां 4500 मीट्रिक टन कचरा हर रोज निकलता है, इसमें 429 मीट्रिक टन से अधिक प्लास्टिक कचरा शामिल होने का अनुमान है। यहाँ रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग होने वाले प्लास्टिक की हिस्सेदारी लगभग 6 प्रतिशत है, जिसका करीब 2 प्रतिशत हिस्सा औद्योगिक प्लास्टिक से आता है। पटना में हर रोज 1000 मीट्रिक टन कचरा निकलता है, जिसमें 300 मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा होता है। यहाँ 11 हजार कैचपिट और मेनहोल प्लास्टिक फँसने की वजह से अक्सर जाम हो जाते हैं। पटना में एक घंटे की बारिश से ही जलभराव की स्थिति पैदा हो जाती है। इसी तरह हैदराबाद में हर रोज 4500 मीट्रिक टन कचरा रोज निकलता है। इसमें 5 फीसदी कचरा प्लास्टिक का होता है, जिसका 40 फीसदी कचरा नाले में जाता है, जिससे नाले जाम होने की समस्या सामने आती है। 90 फीसदी नाले प्लास्टिक कचरे की वजह से बंद रहते हैं। यह शहर 30 मिलीमीटर लगातार बारिश ही झेल सकता हैं। लखनऊ के 71 फीसदी नालों में कचरा भरा रहता है। 


लखनऊ में रोजाना 100-120 टन पॉलीथिन और प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। यहाँ 50 फीसदी से ज्यादा शिकायतें नाले जाम होने की होती हैं। यहाँ पर 1500 मीट्रिक टन कचरा हर रोज पैदा होता है। इस शहर में 28 में से 20 प्रमुख नाले कचरे की वजह से जाम हो जाते हैं। यदि इनके समाधान की सोचें तो प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाना स्थायी समाधान नहीं है, बल्कि हमें प्लास्टिक कचरे के सकारात्मक इस्तेमाल के उपाय तलाशने होंगे। 'प्लास्टिक मैन' प्रोफेसर राजगोपालन वासुदेवन की इसी सोच ने उन्हें प्लास्टिक कचरे से सड़क निर्माण की विधि खोजने को प्रेरित किया। सन् 2002 में वासुदेवन ने सड़क निर्माण में प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल' नाम का शोधपत्र पेश किया, था।

जिसे देश विदेश में काफी सराहना मिली। सन् 2004 में वे शोध के उन्नत संस्करण के साथ सामने आए। तमाम देशों ने प्लास्टिक कचरे से सड़क बनाने की वासुदेवन की तकनीक में दिलचस्पी दिखाई। उन्हें मुँहमाँगी कीमत की पेशकश भी की गई, पर उन्होंने अपनी तकनीक भारत सरकार को मुफ्त में सौंप दी। इस तकनीक के तहत सबसे पहले प्लास्टिक कचरे को समान आकार के बारीक कणों में तोड़ते हैं, फिर उसे 170 डिगरी सेल्सियस तापमान पर गरम किए गए एस्फाल्ट के घोल में मिलाकर पिघले हुए तारकोल में डालते हैं। इस सामग्री से बेहद मजबूत और टिकाऊ ईको-फ्रेंडली सड़क तैयार होती है, जिसकी निर्माण लागत व रखरखाव का खर्चे बहुत कम है। वासुदेवन ने मुदर के थियागराजर इंजीनियरिंग कॉलेज परिसर में अपनी तकनीक पर आधारित पहली सड़क बनाई। इसके बाद 12 राज्यों के कई छोटे-बड़े शहर प्लास्टिक कचरे से सड़क निर्माण की उनकी विधि अपनाने लगे। सन् 2015 में केंद्र ने 5 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के 50 मीटर दायरे में सड़क निर्माण में प्लास्टिक कचरे के प्रयोग को अनिवार्य कर दिया। जब मध्य प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर को लगातार दूसरे साल देश का सबसे साफ-सुथरा शहर घोषित किया गया है तो उसके पीछे का कारण प्लास्टिक कचरे पर किया गया बेहतर नियंत्रण ही था। यहाँ कचरा फैलाने का एक बड़ा कारण प्लास्टिक थी। उसके उपयोग पर जुरमाने का प्रावधान किया गया तो लोगों ने उसका इस्तेमाल कम कर दिया।

दुकानदार भी अब यहाँ मानक स्तर की ही पॉलीथिन देने लगे हैं। इंदौर नगर निगम ने सबसे पहले शहर से कचरा पेटियाँ हटाईं। घर-घर से यहाँ कचरा एकत्र किया गया। नगर निगम ने यहाँ ऐसी व्यवस्था बनाई कि दुकानों से रात को कचरा लिया जाने लगा और रात ही में बाजारों की सफाई भी प्रारंभ की गई। इंदौर नगर निगम ने लीक से हटकर क्यूबिक मीटर क्षमता वाली कचरा गाड़ियाँ बनवाईं, जो एक हजार घरों से कचरा एकत्रित कर लेने की क्षमता रखती हैं। पहले यह क्षमता 300 घरों तक ही सीमित थी, जो अब बड़े भौगोलिक क्षेत्र तक पहुँच चुकी है। अब इंदौर शहर में सफाई का सिलसिला 24 घंटे चलता है। महिलाएँ गीला और सूखा कचरा अलग करके नगर निगम को सौंपती है। यहाँ बच्चे सफाई के एंबेसेडर बनाए गए हैं, ताकि घरों में सफाई में कमी रहने पर वे बड़ों को भी टोक सकें। स्कूल और कॉलेजों में स्वच्छता समितियों का गठन किया गया है। इस तरह इंदौर शहर का प्रयोग अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद है।

यहाँ स्मरण रखने योग्य है कि, हाल ही में कनाडा के हैलीफैक्स शहर में प्लास्टिक कचरे की वजह से इमरजेंसी लगानी पड़ी, लेकिन विश्व के कई शहर प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए अनूठे प्रयोग कर रहे हैं। ऐसी ही एक योजना है-प्लास्टिक कचरा लाएँ, मुफ्त में खाना खाएँ। लंदन के 'दि रविश कैफे' में पसंदीदा चाय, कॉफी या स्नैक्स का लुत्फ उठाने के लिए जेब में पैसे होना जरूरी नहीं है। घर में मौजूद प्लास्टिक कचरे के सहारे भी वहाँ भरपेट खाना खाया जा सकता है, बशर्ते कचरा रिसाइकिल करने योग्य हो। 'ई-कवर' नाम की संस्था ने पृथ्वी पर प्लास्टिक कचरे के बढ़ते बोझ से निपटने को 'दि रबिश कैफे नाम का रेस्तरों खोलने की साहसिक पहल की है। महीने में दो दिन चलने वाली इस योजना के तहत इस रेस्तरों में ग्राहक पैसों की जगह उन दो दिनों में प्लास्टिक कचरे से बिल का भुगतान करते हैं, जिसे बाद में रिसाइक्लिंग प्लांट भेज दिया जाता है। इतना ही नहीं, 'दि रविश कैफे 'जीरो-वेस्ट मेन्यू' के सिद्धांत पर चलता है। इसमें सीमित मात्रा में तय पकवान बनाकर 'पहले आओ पहले पाओ' की नीति के तहत ग्राहकों को परोसा जाता है, ताकि खाना बरबाद न हो।

इसी तरह प्रिंसिपे द्वीप में प्लास्टिक की जगह स्टील की बोतलें मिलती हैं। 'हम आ रहे हैं, आपकी प्लास्टिक की बोतलें बदलने। क्या आपने बोतलें इकट्ठी कर ली हैं ?' - अफ्रीका स्थित प्रिंसिपे द्वीप के बायोस्फीयर रिजर्व की टीम हर तीन माह के अंतराल पर इसी घोषणा के साथ द्वीप में दाखिल होती है। उनके पहुँचते ही द्वीप के मुख्य चौराहों पर बने' बोतल डिपो' पर लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। सभी के हाथों में प्लास्टिक की बोतलों से भरे बोरे नजर आते हैं। 50 बोतलें लौटाने पर बायोस्फीयर रिजर्व की टीम स्टील की बोतलें देती है, जिन्हें बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। प्रिंसिपे प्रशासन ने द्वीप को प्लास्टिकमुक्त बनाने के इरादे से सन् 2013 में यूनेस्को के साथ 'नो प्लास्टिक' योजना की शुरुआत की थी। वह इसके तहत मार्च, 2021 तक प्लास्टिक की 8 लाख से अधिक बोतलें जुटाने में सफल रहा है। एक ऐसे ही उदाहरण के रूप में इंडोनेशिया के मलांग प्रांत के बाशिंदे प्लास्टिक कचरा भूलकर भी नहीं फेंकते और फेंकें भी क्यों, जब इसके बदले उन्हें स्वास्थ्य बीमा की सौगात जो मिलती है। सुनकर भले ही यकीन न हो, पर 'इंडोनेशिया मेडिका' नाम का गैरसरकारी संगठन सन् 2010 से मलांग में 'गार्बेज क्लीनिकल इंश्योरेंस' योजना का संचालन कर रहा है। इसके तहत स्थानीय लोग प्रांत में बनी 'वेस्ट इंश्योरेंस क्लीनिक' में रिसाइकिल करने लायक प्लास्टिक कचरा जमा कराकर स्वास्थ्य बीमा का लाभ उठाते हैं। 4.5 पौंड (लगभग 2 किलो) प्लास्टिक कचरा सौंपने पर उन्हें 10 हजार इंडोनेशियाई रुपये का बीमा दिया जाता है, जो दो बार की सामान्य बीमारी का खरच उठाने के लिए काफी है। बीमे की रकम जुटाने के लिए एनजीओ क्लीनिक में जमा प्लास्टिक कचरा रिसाइक्लिंग प्लांट को बेचता है।


मलेशिया में सोने से कम कीमती नहीं है प्लास्टिक मलेशिया में इन दिनों प्लास्टिक कचरा जुटाने की होड़ मची हुई है। दरअसल, 'हैलो गोल्ड' नाम के एक स्टार्टअप ने रिजर्व वेडिंग मशीन (आरवीएम) कंपनी 'क्लीन' के साथ मिलकर अनोखी 'ई-गोल्ड' योजना की शुरुआत की है। इसके तहत प्लास्टिक की बोतलें और टिन के कैन जमा करने पर ग्राहकों के खाते में 'ई-गोल्ड' डाला जाता है। 'ई-गोल्ड' को उस दिन के सोने की कीमत के हिसाब से भुनाया जा सकता है। है योजना का लाभ उठाने के लिए 'हैलो गोल्ड एप' डाउनलोड कर एक अकाउंट बनाना होता है, फिर देश भर में लगी 500 'क्लीन आरवीएम' मशीनों में प्लास्टिक की बोतल डालने पर खाते में 'ई-गोल्ड' जुड़ता जाता है। 'हैलो गोल्ड' एक प्लास्टिक की बोतल या टिन के कैन के बदले 0.00059 ग्राम सोने के बराबर 'ई-गोल्ड' की पेशकश कर रहा है। विश्व भर में ऐसे अनेकों प्रयास हैं, जो प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन के लिए किए जा रहे हैं, जिनको आधार बनाकर इसका सम्यक समाधान किया जा सकता है। 

प्लास्टिक पर अनेक शोध होने की जरूरत है। आज का यह प्लास्टिक का कचड़ा बहुत बड़ी समस्या का स्वरुप धारण करेगा। लोगो में पास्टिक के प्रति जागरूकता नही है। ऑनलाइन शॉपिंग, पैक्ड फूड, और अन्य तरीके से प्लास्टिक का प्रचलन बड़ा है। हर छोटी सी चीज भी आज पैकिंग तरीके में उपलब्ध है। यही बात हमे प्लास्टिक को बढावा बढ़ा रही है। किसी स्कूल और कॉलेज में आज भी यही नहीं सिखाया जाता है , प्लास्टिक का योग्य उपयोग कैसे हो ? प्लास्टिक को अन्य तरीको से कैसे काम कर सकते है, अर्थात् प्लास्टिक का विकल्प की आज जरूरत हैं। सरकार भी रिसाइकिल इंडस्ट्री को बढावा प्रधान करे। छोटी सी छोटी चीजों के लिए प्लास्टिक का विकल्प ढूंढने का प्रयास करे। यह शुरुवात खुद से करनी चाहिए। 

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