हमारा एक पल कुछ ही देर में मिनटों का स्वरूप ले लेता है। मिनटों से घंटो का, वही घंटे दिन और रात में परिवर्तित हो जाते है। दिन और रातों का यह समय साल बनकर उभर कर आता हैं। कुछ साल बीतते है, वह आयुष्य का रूप साकार करने लगते हैं। मानव का आयुष्य काल चक्र में बंधा हुआ है। कल यही नियम परिवर्तन है।मानव जाति विनाश की ओर अग्रसर हो रही है। मानव जीवन एक व्यस्त रोगी सा प्रतित होता नजर आता है। यह विश्व की सुन्दर रचना सर्व शक्तिमान प्रभु ने की हैं। वही हमारा निर्माता है तो विनाश कर्ता भी वही है। हमे समझना है, मानव का अस्तित्व क्या है? मनुष्य जन्म का प्रयोजन क्या है?
किसी वस्तु के संबंध में विचार करने के लिए यह आवश्यक है। कि उसकी कोई मूर्ति हमारे मनःक्षेत्र में हो। बिना कोई प्रतिमूर्ति बनाये मन के लिए किसी भी विषय में सोचना असम्भव है। मन की प्रक्रिया ही यही है कि पहले वह किसी वस्तु का आकार निर्धारित कर लेता है, तब उसके बारे में कल्पना शक्ति काम करती है। समुद्र भले ही किसी ने न देखा हो, पर जब समुद्र के बारे में कुछ सोच-विचार किया जाएगा, तब एक बड़े जलाशय की प्रतिमूर्ति मनःक्षेत्र में अवश्य रहेगी। भाषा-विज्ञान का यही आधार है। प्रत्येक शब्द के पीछे आकृति रहती है। 'कुत्ता' शब्द जानना तभी सार्थक है, जब 'कुत्ता' शब्द उच्चारण करते ही एक प्राणी विशेष की आकृति सामने आ जाए। न जानी हुई विदेशी भाषा को हमारे सामने कोई बोले तो उसके शब्द कान में पड़ते हैं, पर वे शब्द चिड़ियों के चहचहाने की तरह निरर्थक जान पड़ते हैं। कोई भाव मन में उदय नहीं होता कारण यह है कि शब्द के पीछे रहने वाली आकृति का हमें पता नहीं होता। जब तक आकृति सामने न आए, तब तक मन के लिए असम्भव है कि उस संबंध में कोई सोच विचार करे।
ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों के बारे में भी यही बात है। चाहे उन्हें सूक्ष्म माना जाए या स्थूल, निराकार माना जाए या साकार, इन दार्शनिक और वैज्ञानिक मामलो में पड़ने से मन को कोई प्रयोजन नहीं। उससे यदि इस दिशा में कोई सोच-विचार का काम लेना है, तो कोई आकृति बनाकर उसके सामने उपस्थित करनी पड़ेगी। अन्यथा वह ईश्वर या उसकी शक्ति के बारे में कुछ भी न सोच सकेगा। जो लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं, वे भी 'निराकार' का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश जैसा निराकार, प्रकाश जैसे तेजोमय, अग्नि जैसा व्यापक, परमाणुओं जैसा अदृश्य। आखिर कोई न कोई आकार उस निराकार का भी स्थापित करना ही होगा। जब तक आकार की स्थापना न होगी, मन, बुद्धि और चित्त से उसका कुछ भी संबंध स्थापित न हो सकेगा।
इस सत्य को ध्यान में रखते हुए निराकार, अचिन्त्य बुद्धि से अलभ्य, वाणी से अतीत, परमात्मा का मन से संबंध स्थापित करने के लिए भारतीय आचार्यों ने ईश्वर की आकृतियाँ स्थापित की हैं। इष्टदेवों के ध्यान की सुन्दर दिव्य प्रतिमाएँ गढ़ी हैं। उनके साथ दिव्य वाहन, दिव्य गुण, स्वभाव एवं शक्तियों का संबंध किया है। ऐसी आकृतियों का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से साधक उनके साथ एकीभूत होता है, दूध और पानी की तरह साध्य और साधक का मिलन होता है। भृङ्गी, झींगुर को पकड़ कर ले जाती है और उसके सामने भिनभिनाती है, झींगुर उस गुंजन को सुनता है और उसमें इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आकृति बदल जाती है और झींगुर भृङ्गी बन जाता है। दिव्य कर्म स्वभाव वाली देवाकृति का ध्यान करते रहने से साधक में भी उन्हीं दिव्य शक्तियों का आविर्भाव होता है। जैसे रेडियो यन्त्र को माध्यम बनाकर सूक्ष्म आकाश में उड़ती फिरने वाली विविध ध्वनियों को सुना जा सकता है, उसी प्रकार ध्यान में देवमूर्ति की कल्पना करना आध्यात्मिक_रेडियो स्थापित करना है, जिसके माध्यम से सूक्ष्म जगत् में विचरण करने वाली विविध ईश्वर शक्तियों को साधक पकड़ सकता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार अनेक इष्टदेवों की अनेक आकृतियाँ, साधकों को ध्यान करने के लिए बताई गई हैं। जहाँ अन्य प्रयोजनों के लिए अन्य देवाकृतियाँ हैं वहाँ इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वरमय देखने के लिए 'विराटरूप' परमेश्वर की प्रतिमूर्ति विनिर्मित की गई है। मनुष्य की सारी आत्मोन्नति और सुख-शान्ति इस बात पर निर्भर है कि उसका आन्तरिक और बाह्य जीवन पवित्र एवं निष्पाप हो, समस्त प्रकार के क्लेश, दुःख, अभाव एवं विक्षोभों के कारण मनुष्य के शारीरिक और मानसिक पाप हैं। यदि वह इन पापों से बचता जाता है तो फिर और कोई कारण ऐसा नहीं जो उसकी ईश्वर प्रदत्त अनन्त सुख-शान्ति में बाधा डाल सके। पापों से बचने के लिए ईश्वरीय भय की आवश्यकता होती है। ईश्वर सर्वत्र व्यापक है इस बात को जानते तो सब हैं, पर अनुभव बहुत कम लोग करते हैं। जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि, ईश्वर मेरे चारों ओर छाया है और वह पाप का दण्ड अवश्य देता है। जिसके यह भावना अनुभव में आने लगेगी, वह पाप न कर सकेगा। जिस चोर के चारों ओर सहस्र पुलिस घेरा डाले खड़ी हो और हर तरफ से उस पर आँखें गड़ी हुई हों, वह ऐसी दशा में भला किस प्रकार चोरी करने का साहस करेगा ?
परमात्मा की आकृति चराचरमय ब्रह्माण्ड में देखना ऐसी साधना है, जिसके द्वारा परमात्मा के अनुभव करने की चेतना जागृत हो जाती है। यही विश्वमानव की पूजा है, इसे ही विराट् दर्शन कहते हैं। रामायण में भगवान् राम ने अपने जन्म-काल में कौशल्या को विराट् रूप दिखलाया था। उत्तराखण्ड में काकभुशुण्ड जी के संबंध में वर्णन है कि वे भगवान् के मुख में चले गये तो वहाँ सारे ब्रह्माण को देखा। भगवान कृष्ण ने भी इसी प्रकार कई बार विराट् रूप दिखाये। मिट्टी खाने के अपराध से मुँह खुलवाते समय यशोदा को विराट् रूप दिखाया, महाभारत के उद्योग पर्व में दुर्योधन ने भी ऐसा ही रूप देखा। अर्जुन को भगवान् ने युद्ध के समय विराट्रूप दिखाया, जिसका गीता के ११ वें अध्याय में सविस्तार वर्णन किया गया है।
इस विरारूप को देखना हर किसी के लिए सम्भव है। अखिल (विश्व ब्रह्माण्ड में परमात्मा की विशालकाय मूर्ति देखना और उसके अन्तर्गत उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों के रूप में समस्त पदार्थों को देखने, प्रत्येक स्थान को ईश्वर से ओत-प्रोत देखने की भावना करने से भगवद् बुद्धि जागृत होती है। और सर्वत्र प्रभु की सत्ता से व्याप्त होने का सुदृढ़ विश्वास होने से मनुष्य पाप से छूट जाता है। फिर उससे पाप कर्म नहीं बन सकते। निष्पाप होना इतना बड़ा लाभ है कि उसके फलस्वरूप सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। अन्धकार के अभाव का नाम है प्रकाश और दुःख के अभाव का नाम है- आनन्द । विराट् दर्शन के फलस्वरूप निष्पाप हुआ व्यक्ति सदा अक्षय आनन्द का उपभोग करता है।
मनुष्य वह है, जो सर्व शक्तिमान परमपिता परमात्मा के तेज और वैभव का सर्वोच्च प्रतीक है। परम पिता परमात्मा ने अपना सभी कौशल्य शक्ति को एक जगह क्रेंद्रित कर के इस बड़े ब्रम्हांड की रचना की हैं। ईश्वर हमारे लिए ही है, और यह रचना हम सभी के लिए है। वही मनुष्य आज आत्महत्या का आश्रय लेता प्रतीत होता है। नकारात्मकता मनुष्य को निरूत्तसाह बना रही है। यही विनाश का कारण है। यही विचार संस्कृति का अपहरण कर रहा हैं। शिव रूप साकार इस सृष्टि को नष्ट करने का कुचलने का प्रयास मानव द्वारा हो रहा हैं। इस समय निर्माण कर्ता परमात्मा कैसे शांत रहे? इस समय भगवान श्रीकृष्ण की वो, "यदा यदा हि धर्मस्य" प्रतिज्ञा की पुनः वृत्ति तो होकर रहेगी। कालचक्र अपने परिवर्तन में मग्न है, परिवर्तन ही अखंड है। परिवर्तन ही नियम हैं। भगवान सही समय पर युग अवतरण की बेला को जाग्रत करते रहते हैं। जिस समय परेशानी के बादल मंडराते रहते है, उस समय भगवंत किसी ना किसी रूप में हमारी मदद करने के लिए आते है, और अवतार धारण करते है। यह संतुलन संभालने के सुक्ष्म सृष्टि में दिव्य चेतना का निर्माण होना संभव होता है।
सृष्टि निर्माण के आदि काल में केवल पानी ही था। इसका उल्लेख कुछ ग्रंथो ,पुराणों में मिलता है। उस समय मत्स्यावतार का अवतरण हुआ था। उसके बाद अनेकों अवतारो की श्रृंखला का अवतरण इस धरा पर निरन्तर चलता आ रहा हैं। जब जब इस धरा पर हलचल बढ़ती हैं, तो उस उग्ररूप धरि भगवान नृसिंह को कैसे भुल सकते है? उनका पराक्रम अपने ही चरम स्थान पर मंडराता हुआ प्रतित होता हैं। उस समय संस्कृती की आदिम अवस्था को ध्यान में रखते हुए मानव और सिंह का जो समन्वय रूप नृसिंह अवतार हुआ था। दृष्टता को कुचलने के लिए यह अवतार धारण हुआ हैं। जब पशुसुलभ प्रवृत्ति बढ़ती है,और स्वार्थ की भावना बढ़ती हैं,अंहकार का नाश करने के लिए दान शुरो को प्रवृत्त करने के लिए वामन अवतार का आगमन इस धरती पर हुआ। भगवान परशुराम ,मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम प्रभु, श्रींकृष्ण, बुद्ध इन महापुरुषों के अवतार इसी क्रम में हुए हैं। इन भगवतीय सत्ता का पुनः अवतरण अत्याचार का समूल नाश करने के लिए हुआ था,और यही उद्देश रहा होगा। भगवान् परशुराम ने सामंतवादी राजेशाही को घुटने टेकने पर मजबूर किया तो , प्रभू श्रीरामचंद्र जी ने मर्यादा का पालन करते हुए अनीति का विरोध किया। धर्मतत्व में अनेक विकृति को देखते हुए भगवान बुद्ध ने धर्म व्यवस्था को महत्व देकर " धम्म शरणम् गच्छामि" का अहसास समस्त मानव जाति को करवाया।
इन सभी अवतारों का प्रयोजन एक ही है, दृष्टो का सर्वनाश और धर्म की स्थापना।आज की स्थिति कुछ भिन्न दिखाई पड़ती है। यह काल दृष्ट असुरो का नही है। यह काल भ्रष्ट लोगों का दिखाई पड़ता है। इस लिए शस्त्र युक्त भगवान् की अवतरण का समय नहीं अपितु दृष्टो के नाश के लिए युगचण्डी का साक्षात्कार होना अनिवार्य है। विकारों को जीतकर भावना में अंश मात्र रहे हुए भ्रष्ट वृत्ति का नाश करना महत्व पूर्ण है। यह जटिल कार्य संपन्न करने के लिए भगवती आद्यशक्ति को अवतरित होना होगा। यह समय युगपरिवर्तन के रणांगन में जो "धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे" इस विशाल भूभाग पर है, उसी का दूसरा नाम है "जनमानस"। इसी क्षेत्र में परिष्कार, परिवर्तन, शुद्धिकरण की आवश्यकता होगी। यह क्षेत्र सेनापति का होगा। सेनापति का ध्येय होगा, जनमानस ,समष्टि मन अंत कारण की शुद्धता और विकास। आज की समस्या का समाधान बाहरी खोज के ऊपर नहीं हो सकता है। वैचारिक और भावनीक प्रवाह को बदलकर उनको सही दिशा देना ही यही विकल्प सही होगा। तभी विचारो की उच्च श्रृंखला ओ का नया परिवर्तन संभव होगा। बुद्धि में सदबुद्धि का विकास बीज अंकुर लेगा यही आध्यात्म का जीवन लक्ष्य हैं। आध्यात्म विकास में मुख्य तत्व जो कार्य करता है, वो है "गायत्री"। गायत्री मंत्र दिव्य शक्तियों से ओतप्रोत हैं। गायत्री मंत्र के चौबीस रूप चौबीस अक्षरों में मिले हुए हैं। आध्यात्म का वह प्राण उदगम मेरुदंड हैं। यज्ञोंपवित भी गायत्री हैं। "ब्रम्हविद्या" तत्वज्ञान और ब्रम्हवर्चस के तपविधान का उगम केंद्र है गायत्री।
इस महाशक्ति का उदगम विश्व पटल पर भारत भूमि है सामान्यत इसी क्षेत्र पर उसका सर्वाधिक प्रभाव देखा गया हैं।अन्य क्षेत्र पर उसका प्रभाव कम अधिक प्रमाण में देखा जाता है। आध्यात्म के अधिक प्रभाव उसके उच्च भाव में देखा जाता है। परमाणु कितना भी सुक्ष्म रहता है, पर उसकी भीतर रहने वाली शक्ति की गति उससे भिन्न होती हैं। गायत्री मंत्र भी परमाणु की तरह ही हैं।गायत्री मंत्र केवल 24 अक्षरों का प्रतित होता हुए भी,उस मंत्र का अतुल्य सामर्थ्य उसके भीतर मौजूद है।
1. ज्ञान
2. विज्ञान
ब्राम्ही चेतना इसी दो रूपों में प्रकट हुई हैं। ज्ञान पक्ष उच्च कोटि का तत्त्वज्ञान, ब्रह्मविद्या, ॠतंभरा प्रज्ञा के नामों से प्रसिद्ध है। मानव की ईच्छा ,आकांक्षा, श्रद्धा भावना इनको उत्कृष्ट गति देने के लिए ज्ञान पक्ष का उपयोग होता है। मानवी IQ का विकास भी इसी आधार पर होता है। गायत्री के दूसरे विज्ञान पक्ष उपासना और साधना की अनेकों विधियो से भरा हुआ है। ऐरोस्पेस में मानवी सत्ता की महान संभावना प्रसूप्त स्थिति में हैं। जिनको एक तरीके से "टू कॉपी" कहना पड़ेगा। इसी प्रसुप्त सामर्थ्य को जाग्रत कर अनेक चमत्कार करना संभव हैं। मनुष्य सामान्यता 5 फिट, 6 फिट और 50 kg और 60 kg के आसपास खतापिता रहता प्रतित होता हैं और जीवन जीता हैं। पर उसकी चेतना, उसकी मूलसत्ता उसके अंतः करण में गुप्त तरीके से निवास करती है। उस चेतना के विकास के लिए जिस तरीके का वातावरण ,संस्कार रहते है, उसी स्वरूप में चेतना धारण करती है। व्यक्ति की गति और अधोगति उसके अंतः करण की चेतना पर आधारभूत होते है। चेतना विकास के लिए केवल भौतिक वस्तुओं से उसका विकास संभव नहीं है।चेतना विकास के लिए सचेतन उपचार ही सफल है। इसे "आध्यात्म विज्ञान" कहते है। उपासना का अर्थ है, मनुष्य की महानता इंद्रिय नियंत्रण अर्थात प्रत्याहार में हैं। तभी उपासना फलद्रूप और परिपक्व होती है। यही शक्ति अवतरण की कल्याणी वेला त्रिपदा नाम से तीन धाराओं के स्वरूप में प्रवाहित होगी। जो महास्वरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली के रूप में उदय होगी। तिन्ही शक्तियों की उपस्थिति में मंत्ररूप में अंतः करण का विकास और आध्यात्म नवस्फूरण का अंकुर उगेगा। आज विकृति अपने चरम स्थान पर मंडराती हुई है। अनास्था, अश्रद्धा को खत्म करने के लिए चेतना विकास और जनमानस परिष्कार यही उत्तम उपाय है। यही उज्ज्वल भविष्य का केंद्र है। यही ब्राम्ही चेतना का अवतरण श्रद्धा और सद्भावना की प्रतिस्थपना के रूप में दिखाई पड़ रही है। यही कोलाहल ब्रम्ह अवतरण का सही समय है। यही युगशक्ति प्रथम ब्रम्ह रूप में अवतरित हुई हैं। यह ब्रम्ह शक्ति आगे भावना के स्तर पर विभाजित हुई जिसे सात ऋषियों के नामों से पहचाना जाता हैं। वही सप्तश्री सृष्टि के परम वैदिक वैज्ञानिक के रूप में सिद्ध हुए। प्रस्तुत गायत्री मंत्र में विनियोग उदघोष गायत्री छंद, सविता देवता और विश्वामित्र ऋषि का उल्लेख मिलता है। यह युग अवतरण की श्रृंखला अपितु भिन्न दिखाई पड़ती है, परंतु अलंकारिक दृष्टि से यही मुख्य संदर्भ है।
अध्यात्म और विज्ञान के विग्रह जिस सर्वनाशी संभावना का सूत्र पात किया है। उसकी प्रथम झाँकी आस्था संकट के रूप में सामने है। आदर्शवादी मूल्यों के गिर जाने से मनुष्य विलासी, स्वार्थी ही नहीं अपराधी बनता और गरिमा को निरन्तर खोता चला जा रहा है। उसके पतन-पराभव तो हुआ ही है, समूचे समाज को समस्याओं, विपत्तियों और बिभीषिकाओं का सामना करना पड़ रहा है। अभी पानी गुनगुना भर हुआ है, अगले दिनों जब वह उबलेगा, भाप बनेगा और बन्द बर्तन को फाड़ कर विस्फोटक रौद्र रूप का परिचय देगा तो दिल दहलाने वाली आशंकायें सामने आ खड़ी होंगी। आवश्यकता है कि समय रहते समाधान सोचा जाय और विपन्न वर्तमान के भयानक भविष्य का रूप धारण करने से पूर्व ही स्थिति को संभाल लिया जाय ।
अध्यात्म की अपनी शाश्वत सत्ता है किन्तु विज्ञान ने भी अपनी सामयिक प्रौढ़ता उत्पन्न कर ली है। दोनों लड़ेंगे तो सुन्द-उपसुन्द दैत्य बन्धुओं की तरह एक दूसरे का विनाश करके अन्ततः ऐसी रिक्तता उत्पन्न करेंगे जिसे फिर से भर सकना असम्भव नहीं तो अत्यधिक कठिन अवश्य होगा। विग्रह को सहयोग में बदल देना है, तो कठिन काम, पर उसे किसी न किसी प्रकार करना ही होगा। इसके अतिरिक्त महामरण ही एकमात्र विकल्प है। अस्तु उसे किया ही जाना चाहिए, करना ही चाहिए। देव और दैत्य मिलकर समुद्र मन्थन करने में तत्पर हुए और चौदह बहुमूल्य रत्न उपलब्ध करने के अधिकारी बने। उसी उपाख्यान की पुनरावृत्ति के रूप में अध्यात्म और विज्ञान को परस्पर सहयोग करने और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनायें साकार करने पर सहमत किया जा सकता है।
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