भारतीय संस्कृति का आधारभूत तत्व है यज्ञ। यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्राण है। मनुष्य जीवन एक यज्ञ कुंड की तरह है।यज्ञ का अपने आप में एक विशिष्ट स्थान हैं। यज्ञ बाह्य जगत के अनुसार वायुमंडल को शुद्ध करता है। रोग,महामारी को दूर करता है।
यज्ञ (हवन) वैदिक परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। आर्य मूल रूप से अग्नि पूजक थे। ऋग्वेद का प्रथम शब्द अग्नि है और यज्ञ अग्नि-विज्ञान से जुड़ा है, जिसके अनुसार अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, वह उसे भस्म करके उसका विस्तार कर देती है और सूक्ष्म रूप से उसे ऊपरी लोकों में भेज देता है। अमेरिका के 'नासा' वैज्ञानिकों ने भी यह स्वीकारा है कि उनके द्वारा प्रक्षेपित 'रॉकेट्स' से निकलनेवाली लपटों के कारण रॉकेट्स में डाली ध्वनियों की मात्रा स्वतः बढ़ जाती है, जो इस प्राचीन सत्य को प्रतिपादित करती है कि अग्नि उसमें डाली वस्तुओं का विस्तार करती है। अग्नि-पूजा का दर्शन है-प्रकृति के प्रति और अन्य देवों के प्रति जो हमारा ऋण है, उसे उतारना और बातावरण को शुद्ध करना। यज्ञ की सारी प्रक्रिया के पीछे अग्नि व मंत्र दो शास्त्र निहित हैं।
यज्ञ के लिए जो अग्निकुंड तैयार किए जाते हैं, वे शुद्ध गणित व रेखागणित के आधार पर होते हैं। वैदिक गणित और सुलभ सूत्रों के अनुसार प्राचीन काल में रेखागणित की भिन्न-भिन्न दस आकृतियोंवाली इंटों का प्रयोग अग्निकुंड को बनाने में किया जाता था। ईंटों का माप यज्ञ करानेवाले व्यक्ति के शारीरिक डोलडौल पर निर्भर करता था रेखागणित के सुलभ सूत्र ईसा से आठ शताब्दी पूर्व के हैं। सन् १९७५ में, केरल में एक वैदिक यज्ञ का आयोजन किया गया था, जिसमें प्राचीन मूल पद्धति का अनुसरण किया गया और पाँच भिन्न-भिन्न आकार की एक हजार ईंटों का प्रयोग किया गया था।
इसके अतिरिक्त यज्ञ में डाली जानेवाली सामग्री, जैसे तरह-तरह की जड़ी-बूटियाँ, काले तिल, जौ, चावल, गुग्गल और गाय का शुद्ध भी सभी का वैज्ञानिक ढंग से चयन होता था ये सभी पदार्थ जब अग्नि में स्वाहा होते हैं तो सूक्ष्म और विस्तारित होकर वायुमंडल विलीन हो जाते हैं। अग्नि में डालने से पूर्व मंत्रोच्चारण होता है जो उन पदार्थों को परिलक्षित कर देता है अर्थात् अग्नि में डाले जानेवाले पदार्थ को सूक्ष्म रूप से किस दैविक शक्ति को भेजा जा रहा है, वह बोले जानेवाले मंत्र से जाना जाता है। मंत्र के अनुसार अग्नि उस पदार्थ के सूक्ष्म रूप की निहित देव या देवी के पास पहुँचा देती है। बस यही यज्ञ का विज्ञान है। विशेष यज्ञों में हम देवताओं के मंत्रों के साथ आहुति में देवताओं की पसंद के पदार्थ भी अग्निकुंड में डालते हैं; जैसे गणेश हवन में गन्ने के टुकड़े, विष्णु हवन में चारु (दूध की खीर) और पितृ-हवन में काले तिल अग्नि इन्हें जलाकर भस्म करके परिवर्तित रूप में देवताओं को पहुँचा देती है और वे प्रसन्न होकर हमें मन वांछित फल प्रदान करते हैं। हवन की अग्नि जड़ी-बूटियों, मेवा व अन्य पदार्थों की भस्म बना देता है, जो एक सशक्त औषधि बन जाती है।
जिसे बाद में प्रसाद के रूप में श्रद्धालुओं में बाँट दिया जाता है। यज्ञ करनेवाले और करानेवाले दोनों के लिए कुछ नियम होते थे, जिनका उन्हें पूर्णरूप से पालन करना पड़ता था। इन नियमों में मन-शुद्धि और शरीर-शुद्धि दोनों अनिवार्य थीं, अन्यथा फल प्राप्ति में बाधा आती थी। आजकल हम हवन तो करते हैं पर उन सब नियमों का पालन नहीं हमें भोजन तो चाहिए, पर धीरे-धीरे चूल्हे की आग पर बना नहीं, बल्कि ओवन पर पका 'फास्टफूड'। इसी प्रकार हमें यज्ञ से भी तुरंत फल चाहिए, पर यज्ञ के नियमों का पालन नहीं। ऐसे में यज्ञ कैसे फलीभूत होगा? फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन मनाए जानेवाला होली का पर्व एक सामूहिक यज्ञ ही था। कुछ विद्वानों के अनुसार यह प्राचीन अग्नि-पूजकों की एक अतिविशिष्ट परंपरा है, जिसका रूप आज बिलकुल बदल गया है। इस पर्व को मनाने
के लिए मूल रूप से केवल गाय के गोबर से बने उपले, मेवा व नवधान्य हो अग्नि में डाला जाता था। इस यज्ञ के लिए होलिका दहन की अग्नि आज की तरह माचिस से नहीं अपितु मंत्रों द्वारा या फिर अगर की लकड़ी को रगड़कर प्रज्वलित की जाती थी। इस सामूहिक यज्ञ में प्राचीन समस्त समाज भाग लेता था। होली दहन ठीक उस समय पर किया जाता था जब चंद्रमा की कला पूर्ण होती थी, जिसका निश्चय गणितज्ञ द्वारा किया जाता था। इस यज्ञ की एक विशेषता यह भी थी कि इसे किसी आश्रम में नहीं बल्कि ग्राम क्षेत्र में आयोजित करते थे। इसका एक बड़ा लाभ यह होता था कि शीत के कारण जो वायुकण ऊपर वायुमंडल में न जाकर भूमि-स्तर पर ही रहते थे और ग्रामवासियों के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते थे, इस पक्ष की अग्नि की गरमी से हलके होकर ऊपर चले जाते और ग्राम के वातावरण को शुद्ध कर देते थे।
आइए वेदों में वर्णित यज्ञ की महिमा को देखते हैं।
।।द्वावि॒मौ वातौ॑ वात॒ आ सिन्धो॒रा प॑रा॒वत॑: ।
दक्षं॑ ते अ॒न्य आ वा॑तु॒ परा॒न्यो वा॑तु॒ यद्रप॑: ॥
मनुष्य के अन्दर दो वायु काम करती हैं, उनमें से श्वासरूप वायु प्राणाशय हृदय में आती है और जीवनबल को लाती है, दूसरी प्रश्वासरूप वायु बाहर जाती है और रोग को बाहर निकालती है, इसलिए श्वास को धीरे-धीरे लेना चाहिए और प्रश्वास को शीघ्र निकाल देना चाहिए
_ऋग्वेद १०.१३७.२
।।आ वा॑त वाहि भेष॒जं वि वा॑त वाहि॒ यद्रप॑: ।
त्वं हि वि॒श्वभे॑षजो दे॒वानां॑ दू॒त ईय॑से ॥
शरीर के अन्दर रहनेवाला वायु स्वास्थ्यप्रद गुण को लाता है और शरीर से बाहर निकलनेवाला रोग को बाहर ले जाता है, इस प्रकार वायु ही सब-ओषधवाला दिव्य-गुणों का लानेवाला है।
_ऋग्वेद १०.१३७.३
।।वात॒ आ वा॑तु भेष॒जं श॒म्भु म॑यो॒भु नो॑ हृ॒दे ।
प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
वायु मनुष्य के हृदय के लिए शान्तिदायक है, रोग का शमन करनेवाला कल्याणकारक महौषध है, ठीक रीति से वायु का सेवन करने पर वह आयु को बढ़ाता है
ऋग्वेद १०.१८६.१
उ॒त वा॑त पि॒तासि॑ न उ॒त भ्रातो॒त न॒: सखा॑ ।
स नो॑ जी॒वात॑वे कृधि ॥
वायु पालक है, रक्षक है, पोषण कर्ता है, जीवन का साथी है, जीवन के लिए समर्थ बनाता है, उसका उचित रीति से सेवन करना चाहिये _ऋग्वेद १०.१८६.२
।।यद॒दो वा॑त ते गृ॒हे॒३॒॑ऽमृत॑स्य नि॒धिर्हि॒तः ।
ततो॑ नो देहि जी॒वसे॑।
वायु के अन्दर जीवन देनेवाला बड़ा भारी कोष है, उस कोष का थोड़ा भी भाग ठीक से ढंग से अन्दर धारण किया जाय, तो स्वस्थ और दीर्घजीवन मिल सकता है
_ऋग्वेद १०.१८६.३
फ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः आम की लकड़ी पर किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फ़ॉर्मिक एल्डिहाइड नामक गैस उत्पन्न होती है जो की खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओ को मारती है तथा वातावरण को शुद्द करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला। गुड़ को जलाने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है।
(२) टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गयी अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाये अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।
(३) हवन की महत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च की क्या वाकई हवन से वातावरण शुद्द होता है और जीवाणु नाश होता है अथवा नही. उन्होंने ग्रंथो. में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलाने पर पाया की ये विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी काम किया और देखा की सिर्फ आम की लकड़ी १ किलो जलाने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलायी गयी एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद बॅक्टेरिया का स्तर ९४ % कम हो गया। यही नही. उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजुद जीवाणुओ का परीक्षण किया और पाया की कक्ष के दरवाज़े खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के २४ घंटे बाद भी जीवाणुओ का स्तर सामान्य से ९६ प्रतिशत कम था। बार बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ की इस एक बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था। यह रिपोर्ट एथ्नोफार्माकोलोजी के शोध पत्र (resarch journal of Ethnopharmacology 2007) में भी दिसंबर २००७ में छप चुकी है।
रिपोर्ट में लिखा गया की हवन के द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों फसलों को नुकसान पहुचाने वाले बैक्टीरिया का नाश होता है। जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।
यज्ञ चिकित्सा के उत्तम परिणाम के लिए आवश्यक निर्देश।
1) भावना :-
समर्पण, सकारात्मक अभिगम, वैज्ञानिक दृष्टिकोण।
2) गुणवत्ता: -
शुद्ध गौ घृत, उत्तम गुणवत्ता युक्त रोगानुसार औषधियों से युक्त हवन सामग्री, गोबर, वट वृक्ष, पीपल, आम की शुद्ध समिधा, तांबे का हवनकुंड।
3) वैज्ञानिक विधि:-
महर्षि दयानंद सरस्वती निर्देशित दैनिक अग्निहोत्र विधि के साथ कमसे कम 51 गायत्री मंत्र से विधि पूर्वक सुव्यवस्थित प्रक्रिया प्रतिदिन दोनों समय ।
4) योग:-
यज्ञ के बाद उसी वातावरण मे रोगानुसार योगासन,प्राणायाम कमसे कम एक से देढ घंटा अवश्य करे।
5) दिनचर्या :-
रोगानुसार निर्देशित उत्तम दिनचर्या का पुर्ण समर्पण से अनुसरण। शुद्ध, सात्विक भोजन का विशेष पालन। सात्विक साहित्य का वांचन इत्यादि।
6) निरंतरता:-
चिकित्सा की निरंतरता ही आदर्श परिणाम देने वाली होती है।
हम सभी संकल्पित होकर यज्ञ संस्कृति को अपनाकर वायुमंडल को शुद्ध रखने में मां प्रकृति की सहायता करते है।
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