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श्वास के साथ जीना सिखना होगा !!

मनुष्य के शरीर का विज्ञान अदभूत हैं। मनुष्य के शरीर का हर एक अवयव अपने योग्य स्थान पर अपना कार्य सुचारू रूप से करता है। मानव शरीर यह वह मशीन है, जो आपका हर समय में आपका साथ निभाती है। हमारे शरीर के प्रत्येक क्रिया का वैज्ञानिक आधार होती है।अगर शरीर पर कुछ घाव हो जाए तो शरीर अपने आप उस घाव को ठीक करता है। शरीर में अशुद्धि जमा होने पर उस टॉक्सिन को शरीर के बाहर निकले की क्रिया भी अपने आप शरीर करता है। इंटेलेंजेंस का खज़ाना है, मानव शरीर। हमे ध्यान देकर प्रत्येक क्रिया को समझना है। पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त होना हमारा मूल कर्तव्य है। स्वास्थ को आकर्षित किया जाए तो हमे स्वास्थ निरोगी होने से कोई नही रोक सकता। मनुष्य शरीर इस अखिल ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप है। इस शरीर रूपी काया को व्यापक प्रकृति की अनुकृति कहा गया है। विराट् का वैभव इस पिण्ड के अन्तर्गत बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में विद्यमान है। कषाय-कल्मषों का आवरण चढ़ जाने से उसे नर पशु की तरह जीवनयापन करना पड़ता है। यदि संयम और निग्रह के आधार पर इसे पवित्र और प्रखर बनाया जा सके, तो इसी को ऋद्धि-सिद्धियों से ओत-प्रोत किया जा सकता है । कोयला ही हीरा होता है। पारे से मकरध्वज बनता है। यह अपने आपको तपाने का तपश्चर्या का चमत्कार है।

जीवात्मा परमात्मा का अंशधर ज्येष्ठ पुत्र, युवराज है। संकीर्णता के भव-बन्धनों से छूटकर वह "आत्मवत् सर्व भूतेषु" की मान्यता परिपुष्ट कर सके, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना परिपक्व कर सके, तो जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का रसास्वादन कर सकता है। जीव को ब्रह्म की समस्त विभूतियाँ हस्तगत करने का सुयोग मिल सकता है। हम काया को तपश्चर्या से तपायें और चेतना को परम सत्ता में योग द्वारा समर्पित करें तो नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, क्षुद्र महान् बनने का सुयोग निश्चित रूप से मिल सकता है। सृष्टि की रचना में सूर्य और चन्द्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है। हमारा जीवन अन्य ग्रहों की अपेक्षा सूर्य और चन्द्र से अधिक प्रभावित होता है उसी के कारण दिन-रात होते हैं तथा जलवायु बदलती रहती है। समुद्र में तेज बहाव भी सूर्य एवं चंद्र के कारण आता है। हमारे शरीर में भी लगभग दो तिहाई भाग पानी होता है। सूर्य और चन्द्र के गुणों में बहुत विपरीतता होती है। एक गर्मी का तो दूसरा ठण्डक का स्रोत माना जाता है। सर्दी और गर्मी सभी चेतनाशील प्राणियों को बहुत प्रभावित करते हैं। शरीर का तापमान 98.4 डिग्री फारेनाइट निश्चित होता है और उसमें बदलाव होते ही रोग और अशुद्धि होने की संभावना होने लगती है।

मनुष्य के शरीर में भी सूर्य और चन्द्र की स्थिति शरीरस्थ नाड़ियों में मानी गई है। मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक शरीर में 72000 नाड़ियों का हमारे पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। स्वर विज्ञान सूर्य, चन्द्र आदि यहाँ को शरीर में स्थित इन सूक्ष्म नाड़ियों की सहायता से अनुकूल बनाने का विज्ञान है। स्वर क्या है ? नासिका द्वारा श्वास के अन्दर जाने और बाहर निकालते समय जो अव्यक्त ध्वनि होती है, उसी को स्वर कहते हैं। नाड़ियाँ क्या है ? नाडियाँ चेतनशील प्राणियों के शरीर में वे मार्ग हैं, जिनमें से होकर प्राण ऊर्जा शरीर के विभिन्न भागों तक प्रवाहित होती है। हमारे शरीर में तीन मुख्य नाडियाँ होती है। ये तीनों नाडियाँ मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक मुख्य रूप से चलती है। इनके नाम ईंडा, पिंगला और सुषुम्ना है। इन नाड़ियों का सम्बन्ध संपूर्ण शरीर से नहीं होता। अतः आधुनिक यंत्रों, एक्स, सोनोग्राफी आदि यंत्रों से अभी तक उनको प्रत्यक्ष देखना संभव नहीं हो सका है। जिन स्थानों पर ईडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ आपस में मिलती है, उनके संगम को शरीर में ऊर्जा चक्र अथवा शक्ति केन्द्र कहते हैं।
ईडा और पिंगला नाड़ी तथा दोनों नासिका रंध्र से प्रवाहित होने वाली श्वास के बीच सीधा संबंध होता है, सुषुम्ना के बांयी तरफ ईंडा और दाहिनी तरफ पिंगला नाड़ी होती है। ये दोनों नाड़ियाँ मूलधार चक्र से उगम होकर अपना क्रम परिवर्तित करती हुई षटचक्रों का भेदन करती हुई कपाल तक बढ़ती हैं। प्रत्येक चक्र पर एक दूसरे को काटती हुई आगे नाक के नथुनों तक पहुंचती है। उनके इस परस्पर सम्बन्ध के कारण ही व्यक्ति नासिका से प्रवाहों को प्रवाहित करके अत्यन्त सूक्ष्म स्तर पर ईंडा और पिंगला नाड़ी में संतुलन स्थापित कर सकता है। श्वसन में दोनों नथूनों की भूमिका जन्म से मृत्यु तक हमारे श्वसन की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह क्रिया दोनों नथुने से एक ही समय समान रूप से प्राय: नहीं होती। श्वास कभी बाये नथुने से, तो कभी दाहिने नथुने से चलता है। कभी-कभी थोड़े समय के लिए दोनों नथुने से समान रूप से चलता है।

बांये नथूने से जब श्वास प्रक्रिया होती है तो चन्द्र स्वर का चलना, दाहिने नथूने में जब श्वास की प्रक्रिया मुख्य होती है तो उसे सूर्य स्वर का चलना तथा जब श्वास दोनों नथूने के समान रूप से चलता है तो उस अवस्था को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते हैं। एक नथुने को दबाकर दूसरे नथूने के द्वारा श्वास बाहर निकालने पर यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि एक नथूने से जितना सरलतापूर्वक श्वास चलता है उतना उसी समय प्रायः दूसरे नथूने से नहीं चलता। जुकाम आदि न होने पर भी मानों दूसरा नथूना प्रायः बन्द है, ऐसा अनुभव होता है। जिस नथूने से श्वास सरलतापूर्वक चलता है, उसी समय उसी स्वर से सम्बन्धित नाड़ी में श्वास का चलना कहा जाता है तथा उस समय अव्यक्त स्वर को उसी नाड़ी के नाम से पहचाना जाता है। अतः ईडा नाड़ी के चलने पर ईंडा स्वर, पिंगला नाड़ी के चलने पर पिंगला स्वर और सुषुम्ना से श्वसन होने पर सुषुम्ना स्वर प्रभावी होता है।

ईडा और पिंगला श्वास प्रवाह का सम्बन्ध सिम्पथेटिक और पेरासिम्पथेटिक स्नायु संस्थान से होता है, जो शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों का नियन्त्रण और संचालन करते हुए उन्हें परस्पर संतुलित बनाए रखता है। ईडा और पिंगला दोनों स्वरों का कार्य क्षेत्र कुछ समानताओं के बावजूद अलग-अलग होता है। ईडा का संबंध ज्ञानवाही धाराओं, मानसिक क्रिया कलापों से होता है। पिंगला का संबंध क्रियाओं से अधिक होता है। अर्थात् इडा शक्ति का आन्तरिक रूप से होती है, जबकि पिंगला शक्ति का बाह्य रूप से होता है। तथा सुषुम्ना केन्द्रीय शक्ति होती है, उसका संबंध केन्द्रीय नाड़ी संस्थान (Central Nervous System) से होता है। जब पिंगला स्वर प्रभावी होता है, उस समय शरीर की बाह्य क्रियाएँ सुगमता से होने लगती है। शारीरिक ऊर्जा दिन के समान सजग, सक्रिय और जागृत होने लगती है। अतः पिंगला नाड़ी को सूर्य नाड़ी एवं उसके स्वर को सूर्य स्वर भी कहते हैं। परन्तु जब ईडा स्वर सक्रिय होता है तो उस समय शारीरिक शक्तियाँ सुषुप्त अवस्था में विश्राम कर रहीं होती है। अतः आन्तरिक कार्यों हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध होने से मानसिक सजगता बढ़ जाती है। चन्द्रमा से मन और मस्तिष्क अधिक प्रभावित होता है क्योंकि चन्द्रमा को मन का स्वामी भी कहते हैं। अतः ईडा नाड़ी को चन्द्र नाड़ी और उसके स्वर को चन्द्र स्वर भी कहते हैं। चन्द्र नाड़ी शीतलता प्रधान होती है, जबकि सूर्य नाड़ी उष्णता प्रधान होती है। सुषुम्ना दोनों के बीच संतुलन रखती है। सूर्य स्वर मस्तिष्क के बायें भाग एवं शरीर में मस्तिष्क के नीचे के दाहिने भाग को नियन्त्रित करता है, जबकि चन्द्र स्वर मस्तिष्क के दाहिने भाग एवं मस्तिष्क के नीचे शरीर के बायें भाग से संबंधित अंगों, में अधिक प्रभावकारी होता है जो स्वर ज्यादा चलता है, शरीर में उससे संबंधित भाग को अधिक ऊर्जा मिलती है। तथा बाकी दूसरे भागों को अपेक्षित ऊर्जा नहीं मिलती। अतः जो अंग कमजोर होता है, उससे संबंधित स्वर को चलाने से रोग में लाभ होता है।
स्वस्थ मनुष्य का स्वर प्रकृति के निश्चित नियमों के अनुसार चला करता है। उनका अनियमित प्रकृति के विरूद्ध चलना शारीरिक और मानसिक रोगों के आगमन और भविष्य में अमंगल का सूचक होता है। ऐसी स्थिति में स्वरों को निश्चित और व्यवस्थित ढंग से चलाने के अभ्यास से अनिष्ट और रोगों से न केवल रोकथाम होती है, अपितु उनका उपचार भी संभव है। शरीर में कुछ भी गड़बड़ होते ही गलत स्वर चलने लग जाता है। नियमित रूप से सही स्वर अपने निर्धारित समयानुसार तब तक नहीं चलने लगता, जब तक शरीर पूर्ण रूप से रोग मुक्त नहीं हो जाता। स्वर नियन्त्रण स्वास्थ्य का मूलाधार स्वर विज्ञान भारत के ऋषि मुनियों की अद्भुत खोज है। उन्होंने मानव शरीर की प्रत्येक क्रिया प्रतिक्रिया का सूक्ष्मता से अध्ययन किया, देखा, परखा तथा श्वास-प्रश्वास की गति, शक्ति, सामर्थ्य के सम्बन्ध में आश्चर्य चकित कर देने वाली जो जानकारी हमें दी उसके अनुसार मात्र स्वरों को आवश्यकतानुसार संचालित नियन्त्रित करके जीवन की सभी समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है। जिसका विस्तृत विवेचन "शिव स्वरोदय शास्त्र" में किया गया है। जिसमें योग के जनक आदियोगी शिव ने स्वयं पार्वती को स्वर के प्रभावों से परिचित कराया हैं।

मां प्रकृति ने हमें अपने आपको स्वस्थ और सुखी रहने के लिए सभी साधन और सुविधाएँ उपलब्ध करा रखी है, परन्तु हम प्रायः मां प्रकृति की भाषा और संकेतों को समझने का प्रयास नहीं करते। हमारे नाक में दो नथुने क्यों ? यदि इनका कार्य मात्र श्वसन ही होता तो एक छिद्र में भी कार्य चल सकता है। दोनों में हमेशा एक साथ बराबर श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया क्यों नहीं होती? कभी एक नथुने में श्वास का प्रवाह सक्रिय है तो कभी दूसरे में क्यों ? क्या हमारी गतिविधियों और श्वास का आपसी तालमेल होता है। हमारी क्षमता का पूरा उपयोग क्यों नहीं होता? कभी-कभी कार्य करने में मन लग जाता है, तो कभी बहुत प्रयास करने के बावजूद हमारा मन क्यों नहीं लगता? ऐसी समस्त समस्याओं का समाधान स्वर विज्ञान में मिलता है। शरीर की बनावट में प्रत्येक भाग का कुछ न कुछ महत्व पूर्ण कार्य अवश्य होता है। कोई भी भाग अनुपयोगी अथवा पूर्णतया व्यर्थ नहीं होता। स्वरों और मुख्य नाड़ियों का आपस में एक दूसरे से सीधा सम्बन्ध होता है। ये व्यक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक भावों का प्रतिनिधित्व करती है, जो उसके भौतिक अस्तित्व से सम्बन्धित होते हैं। उनके सम्यक संतुलन से ही शरीर के ऊर्जा चक्र जागृत रहते हैं। ग्रन्थियाँ क्रियाशील होती है। चन्द्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी में प्राणवायु का प्रवाह नियमित रूप से बदलता रहता है। 

सामान्य परिस्थिति मे यह परिवर्तन प्रायः प्रति घंटे के लगभग अन्तराल में होता है। परन्तु ऐसा भी होना अनिवार्य नहीं होता। यह परिवर्तन हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। जब हम अन्तर्मुखी होते हैं, उस समय प्रायः चन्द्र स्वर तथा जब हम बाह्य प्रवृत्तियों में सक्रिय होते हैं तो सूर्य स्वर अधिक प्रभावी होता है। यदि चन्द्र स्वर की सक्रियता के समय हम शारीरिक श्रम के कार्य करें तो उस कार्य में प्राय: मन नहीं लगता। उस समय मन अन्य कुछ सोचने लग जाता है। ऐसी स्थिति में यदि मानसिक कार्य करें तो बिना किसी कठिनाई के वे कार्य सरलता से हो जाते है। ठीक जब सूर्य स्वर चल रहा हो और उस समय यदि हम मानसिक करते हैं तो उस कार्य में मन नहीं लगता,और एकाग्रता नहीं आती। इसके बावजूद भी जबरदस्ती कार्य करते हैं तो सिर दर्द होने लगता है। कभी-कभी सही स्वर चलने के कारण मानसिक कार्य बिना किसी प्रयास के होते चले जाते हैं तो, कभी कभी शारीरिक कार्य भी पूर्ण रुचि और उत्साह के साथ होते हैं।

यदि सही स्वर में सही कार्य किया जाए तो हमें प्रत्येक कार्य में अपेक्षित सफलता सरलता से प्राप्त हो सकती है। जैसे अधिकांश शारीरिक श्रम वाले साहसिक कार्य जिसमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, सूर्य स्वर में ही करना अधिक लाभदायक होता है। सूर्य स्वर में व्यक्ति की शारीरिक कार्य क्षमता बढ़ती है। ठीक उसी प्रकार जब चन्द्र स्वर चलता है, उस समय व्यक्ति में चिन्तन, मनन और विचार करने की क्षमता बढ़ती है। स्वर द्वारा ताप संतुलन जब चन्द्र स्वर चलता है तो शरीर में गर्मी का प्रभाव घटने लगता है। अतः गर्मी सम्बन्धित रोगों एवं बुखार के समय चन्द स्वर को चलाया जाये तो बुखार शीघ्र ठीक हो सकता है। ठीक उसी प्रकार भूख के समय जठराग्नि,उत्तेजना के समय प्रायः मानसिक गर्मी अधिक होती है। अतः ऐसे समय चन्द्र स्वर को सक्रिय रखा जाये तो उन पर सहजता से नियन्त्रण पाया जा सकता है।

शरीर में होने वाले जैविक रासायनिक परिवर्तन जो कभी शान्त और स्थिर होते हैं तो कभी तीव्र और उम्र भी होते हैं। जब शरीर में उष्णता का असंतुलन होता है, तो शरीर में रोग होने लगते हैं। अतः यह प्रत्येक व्यक्ति के स्व विवेक पर निर्भर करता है, कि उसके शरीर में कितना उष्णता असंतुलन है। उसके अनुरूप अपने स्वरों का संचालन कर अपने आपको स्वस्थ रखें। जब दोनों स्वर बराबर चलते हैं, शरीर की आवश्यकता के अनुरूप चलते है, तो व्यक्ति स्वस्थ रहता है। दिन में सूर्य के प्रकाश और गर्मी के कारण प्राय: शरीर में गर्मी अधिक रहती है। अतः सूर्य स्वर से सम्बन्धित कार्य करने के अलावा जितना ज्यादा चन्द्र स्वर सक्रिय होगा उतना स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसी प्रकार रात्रि में दिन की अपेक्षा ठण्डक ज्यादा रहती है। चांदनी रात्रि में इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। श्रम की कमी अथवा निद्रा के कारण भी शरीर में निष्क्रियता रहती है। अतः उसको संतुलित रखने के लिए सूर्य स्वर को अधिक चलाना चाहिए। इसी कारण जिन व्यक्तियों के दिन में चन्द्र स्वर और रात में सूर्य स्वर स्वभाविक रूप से अधिक चलता है ये मानव प्रायः दीर्घायु होते हैं।


चन्द्र और सूर्य स्वर का असन्तुलन ही थकावट, चिंता तथा अन्य रोगों को जन्म देता है। अतः दोनों का संतुलन और सामन्जस्य स्वस्थता हेतु अनिवार्य है। चन्द्र नाड़ी का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है, परन्तु उस पर चलने से पूर्व सम्यक् सकारात्मक सोच आवश्यक है। इसी कारण "पतंजली योग" और "कर्म निर्जरा" के भेदों में ध्यान से पूर्व स्वाध्याय की साधना पर जोर दिया गया है। स्वाध्याय के अभाव में नकारात्मक निवृत्ति का मार्ग हानिकारक और भटकाने वाला हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को चन्द्र नाड़ी की क्रियाशीलता का विशेष ध्यान रखना चाहिये। लम्बे समय तक रात्रि में लगातार चन्द्र स्वर चलना और दिन में सूर्य स्वर चलना, रोगी को अशुभ स्थिति का सूचक होता है, और उसका आयुष्य कम होता चला जाता हैं। सूर्य नाड़ी का कार्य प्रवृत्ति का मार्ग है। यह वह मार्ग है जहां भीतर का गौण होता है। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ तथा महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम करता है। कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील होता है। इसमें चेतना अत्यधिक बहिर्मुखी होती है। अतः ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर सफलता पूर्वक आगे नहीं बढ़ पाते।

चन्द्र और सूर्य नाड़ी के क्रमशः प्रवाहित होते रहने के कारण ही व्यक्ति उच्च सजगता में प्रवेश नहीं कर पाता। जब तक ये क्रियाशील रहती है, योगाभ्यास में अधिक प्रगति नहीं हो सकती। जिस क्षण ये दोनों शांत होकर सुषुम्ना के केन्द्र बिन्दु पर आ जाती है तभी सुषुम्ना की शक्ति जागृत होती है और यहीं से अन्तर्मुखी ध्यान का प्रारम्भ होता है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी में जब श्वांस का प्रवाह शांत हो जाता है तो सुषुम्ना में प्राण प्रवाहित होने लगता है। इस अवस्था में व्यक्ति की सुप्त शक्तियाँ सुव्यवस्थित रूप से जागृत होने लगती है। अतः वह समय अन्तर्मुखी साधना हेतु सर्वाधिक उपर्युक्त होता है। व्यक्ति में अहं समाप्त होने लगता है। अहं और आत्मज्ञान उसी प्रकार एक साथ नहीं रहते, जैसे दिन के प्रकाश में अन्धेरे का अस्तित्व नहीं रहता। अपने अहंकार को न्यूनतम करने का सबसे उत्तम उपाय सूर्य नाड़ी और चन्द्र नाड़ी के प्रवाह को संतुलित करना है। जिससे हमारे शरीर, मन और भावनायें कार्य के नये एवं परिष्कृत स्तरों में व्यवस्थित होने लगती है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी का असंतुलन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करता है। जीवन में सक्रियता व निष्क्रियता में इच्छा व अनिच्छा में सुसुप्ति और जागृति में, पसन्द और नापसन्द में, प्रयत्न और प्रयत्नशीलता में, पुरुषार्थ और पुरुषार्थ हीनता में, विजय और पराजय में, चिन्तन और निश्चितता में तथा स्वछन्दता और अनुशासन में दृष्टिगोचर होता है। 

जब चन्द्र नाड़ी से सूर्य नाड़ी में प्रवाह बदलता है तो इस परिवर्तन के समय एक सौम्य अथवा संतुलन की अवस्था आती है। उस समय प्राण ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी से प्रवाहित होती है। अर्थात् यह कहना चाहिये कि सुषुम्ना स्वर चलने लगता है। यह तुरीया अवस्था मात्र थोड़ी देर के लिए ही होती है। यह समय ध्यान के लिए सर्वोत्तम होता है। ध्यान की सफलता के लिए प्राण ऊर्जा का सुषुम्ना में प्रवाह आवश्यक है। इस परिस्थिति में व्यक्ति न तो शारीरिक रूप से अत्यधिक क्रियाशील होता है और न ही मानिसक रूप से विचारों से अति विक्षिप्त प्राणायाम एवं अन्य विधियों द्वारा इस अवस्था को अपनी इच्छानुसार प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि योग साधना में प्राणायाम को इतना महत्व दिया जाता । प्राणायाम को औषधि माना गाय है। कपाल भाति प्राणायाम करने से सुषुम्ना स्वर शीघ्र चलने लगता है।

नथुने के पास अपनी अंगुलियाँ रख श्वसन क्रिया का अनुभव करें। जिस समय जिस नथुने से श्वास प्रवाह होता है, उस समय उस स्वर की प्रमुखता होती है। बाए नथुने से श्वास चलने पर चन्द्र स्वर, दाहिने नथूने से श्वास चलने पर सूर्य स्वर तथा दोनों नथून से श्वास चलने को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते है।स्वर को पहचानने का दूसरा तरीका है कि हम बारी-बारी से एक नथूना बंद कर दूसरे नबूने से श्वाल लें और छोड़े। जिस नथुने से श्वसन सरलता से होता है, उस समय उससे सम्वन्धित
स्वर प्रभावी होता है। स्वर बदलने के नियम अस्वभाविक अथवा प्रवृत्ति की आवश्यकता के विपरीत स्वर शरीर में अस्वस्थता का सूचक होता है। निम्न विधियों द्वारा स्वर को सरलतापूर्वक कृत्रिम ढंग से बदला जा सकता है, ताकि हमें जैसा कार्य करना हो उसके अनुरूप स्वर का संचालन कर प्रत्येक कार्य को सम्यक् प्रकार से पूर्ण क्षमता के साथ कर सके।

1. जो स्वर चलता हो, उस नथुने को अंगुलि से या अन्य किसी विधि द्वारा थोड़ी देर तक दबाये रखने से, विपरीत इच्छित वर चलने लगता है।

2. चालू स्वर वाले नथूने से पूरा श्वास ग्रहण कर बन्द नथूने से श्वास छोड़ने की क्रिया बार-बार करने से बन्द जो स्वर चालू करना हो, शरीर में उसके विपरीत भाग की तरफ करवट लेकर सोने से स्वर चलने लगता है।

3. जिस तरफ का स्वर बंद करना हो उस तरफ की बगल में दबाब देने से चालू स्वर बंद हो जाता है तथा इसके विपरीत दूसरा स्वर चलने लगता है। जो स्वर बंद करना हो, उसी तरफ के पैरों पर दबाव देकर थोड़ा झुककर उसी तरफ खड़ा रहने से उस तरफ का स्वर बन्द हो जाता है।

4. जो स्वर बंद करना हो, उधर गर्दन को घुमाकर ठोड़ी पर रखने से कुछ मिनटों में वह स्वर बन्द हो जाता है। चलित स्वर में स्वच्छ रुई डालकर नथुने में अवरोध उत्पन्न करने से स्वर बदल जाता है।

5. कपाल भाति और नाड़ी शोधन प्राणायाम से सुषुम्ना स्वर चलने लगता है।

निरन्तर चलते हुए सूर्य या चन्द्र स्वर के बदलने के सारे उपाय करने पर भी यदि स्वर न बदले तो रोग असाध्य होता है। उस व्यक्ति की मृत्यु समीप होती है। मृत्यु के उक्त लक्षण होने पर भी स्वर परिवर्तन का निरन्तर अभ्यास किया जाय तो मृत्यु को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है। वैसे तो शरीर में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर चलने की अवधि व्यक्ति की जीवनशैली और साधना पद्धति पर निर्भर करती है। परन्तु जनसाधारण में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर 24 घंटों में बराबर चलना अच्छे स्वास्थ्य का सूचक होता है। दोनों स्वरों में जितना ज्यादा असंतुलन होता है उतना ही व्यक्ति अस्वस्थ अथवा रोगी होता है। संक्रामक और असाध्य रोगों में यह अन्तर काफ़ी बढ़ जाता है। लम्बे समय तक एक ही स्वर चलने पर व्यक्ति की मृत्यु शीघ्र होने की संभावना रहती है। अतः सजगता पूर्वक स्वर चलने की अवधि को समान कर असाध्य एवं संक्रामक रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। सजगता का मतलब जो स्वर कम चलता है उसको कृत्रिम तरिकों से अधिकाधिक चलाने का प्रयास किया जाए तथा जो स्वर ज्यादा चलता है, उसको कम चलाया जाये कार्यों के अनुरूप स्वर का नियन्त्रण और संचालन किया जाये। स्वस्थ जीवन का लक्षण हैं।

चिकित्सा में स्वरों की प्रयोग विधि

गर्मी सम्बन्धी रोग गर्मी, प्यास, बुखार, पीत्त सम्बन्धी रोगों में चन्द्र स्वर चलाने से शरीर में शीतलता बढ़ती है, जिससे गर्मी से उत्पन्न असंतुलन दूर हो जाता है। कफ सम्बन्धी रोग सर्दी, जुकाम, खांसी, दमा आदि कफ सम्बन्धी रोगों में सूर्य स्वर अधिकाधिक चलाने से शरीर में गर्मी बढ़ती है। सर्दी का प्रभाव दूर होता है। आकस्मिक रोग का कारण जब समझ में न आये और रोग की असहनीय स्थिति हो, ऐसे समय रोग का उपद्रव होते ही जो स्वर चल रहा है, उसको बन्द कर विपरीत स्वर चलाने से तुरन्त राहत मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वर में होने वाले परिवर्तनों का नियमित आंकलन और समीक्षा करनी चाहिए। दिन-रात चन्द और सूर्य स्वर का बराबर चलना संतुलित स्वास्थ्य का सूचक होता है। एक स्वर ज्यादा और दूसरा स्वर कम चले तो शरीर में असंतुलन की स्थिति बनने से रोग होने की संभावना रहती है। हम स्वर के अनुकूल जितनी ज्यादा प्रवृत्तियां करेंगे, उतनी अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक लाभ अर्जित कर सकेंगे। "स्वरोदय विज्ञान" के अनुसार व्यक्ति प्रातः निद्रा त्यागते समय अपना स्वर देखें जो स्वर चल रहा है, धरती पर पहले वही पैर रखे बाहर अथवा यात्रा में जाते समय पहले वह पैर आगे बढ़ाये, जिस तरफ का स्वर चल रहा है। साक्षात्कार के समय इस प्रकार बैठे की साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति बन्द स्वर की तरफ हो, तो सभी कार्यों में इच्छित सफलता अवश्य मिलती है।

पंच महाभूत तत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) तथा ज्योतिष के नवग्रह की स्थिति का भी हमारे स्वर से प्रत्येक परोक्ष सम्बन्ध होता है। शरीर में प्रत्येक समय अलग-अलग तत्वों की सक्रियता होती है। शरीर की रसायनिक संरचना में भी पृथ्वी और जल तत्त्व का अनुपात अन्य तत्त्वों से अधिक होता है। सारी दवाईयां प्रायः इन्हीं दो तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती है। अतः जब शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है, उस समय किया गया उपचार सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। उससे कम जल तत्व की सक्रियता पर प्रभाव पड़ता है।

शरीर में किस समय कौनसा तत्त्व प्रभावी होता है, उनको निम्न प्रयोगों द्वारा मालूम किया जा सकता है। दोनों कान, दोनों आँखें, दोनों नथूने और मुंह बंद करने के पश्चात् यदि पीला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है। सफेद रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में जल तत्त्व प्रभावी होता है। लाल रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में अग्नि तत्त्व प्रभावी होता है। काला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रभावी होता है। मिश्रीत (अलग-अलग ) रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में आकाश तत्व प्रभावी होता है।
मुख का स्वाद मधुर हो, उस समय पृथ्वी तत्त्व सक्रिय होता है। जब मुख का स्वाद कसैला हो, उस समय जल तत्व सक्रिय होता है। अब मुख का स्वाद तीखा हो, उस समय अग्नि तत्व सक्रिय होता है। जब मुख का स्वाद खट्टा हो, उस समय वायु तत्त्व सक्रिय होता है। मुख का स्वाद कड़वा हो, उस समय आकाश तत्व सक्रिय होता है। स्वच्छ दर्पण पर मुह से श्वांस छोड़ने पर (फूक मारने पर ) जो आकृति बनती है, वे उस समय शरीर में प्रभावी तत्त्व को दर्शाती है।

(1) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से चौकोन का आकार बनता हो तो, पृथ्वी तत्व की प्रधानता हैं।

(2) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से त्रिकोण आकार बनता हो तो, अग्नि तत्त्व की प्रधानता।

(3) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से अर्द्ध चंद्राकार आकार बनता हो तो जल तत्व की प्रधानता। यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से वृत्ताकार (गोल) आकार बनता हो तो, वायु तत्त्व की प्रधानता है।

(4) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से मिश्रीत आकार बनता हो तो, आकाश तत्व की प्रधानता समझे। 

जिज्ञासु व्यक्ति अनुभवी जिज्ञासु "स्वरोदय विज्ञान" का अवश्य गहन अध्ययन करें। क्योंकि स्वर विज्ञान से न केवल रोगों से बचा जा सकता है, अपितु प्रकृति के अदृश्य रहस्यों का भी पता लगाया जा सकता है। मानव देह में स्वर चिकित्सा ऐसी आश्चर्यजनक, सरल, स्वावलम्बी प्रभावशाली बिना किसी खर्च वाली चमत्कारी प्रणाली होती है, जिसका ज्ञान और सम्यक पालन होने पर किसी भी सांसारिक कार्यों में असफलता की प्रायः संभावना नहीं रहती। स्वर विज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति करने से साक्षात्कार 'सफलता, भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभ्यास, सामने वाले व्यक्ति के अन्तरभावों को सहजता से समझा जा सकता है। जिससे प्रतिदिन उपस्थित होने वाली अप्रतिकूल परिस्थितियों से सहज बचा जा सकता है। अज्ञानवश स्वरोदय की जानकारी के अभाव से ही हम हमारी क्षमताओं से अनभिज्ञ होते हैं। रोगी बनते हैं तथा अपने कार्यों में असफल होते हैं। स्वरोदय विज्ञान प्रत्यक्ष फलदायक है, जिसको ठीक-ठीक लिपीबद्ध करना संभव नहीं। 

फूल की सुन्दरता और महक उसकी किसी पंखुड़ी तक सीमित नहीं है। वह उसकी समूची सत्ता के साथ हुई है। आत्मिक प्रगति के लिए कोई योगाभ्यास विशेष करने से हो सकता है कि स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर के कुछ क्षेत्र अधिक परिपुष्ट प्रतीत होने से और कई प्रकार की चमत्कारी सिद्धियां प्रदर्शित की जा सकें। आत्मा की महानता के लिए इतने भर से काम नहीं चलता। उसके के लिए जीवन के हर क्षेत्र को समर्थ, सुन्दर एवं सुविकसित होना चाहिए। दूध के कण-कण में घी समाया होता है। हाथ डालकर उसे किसी एक जगह से नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए उस समूचे का मन्थन करना पड़ता है।
जीवन एकांगी नहीं है। उसके किसी अवयव विशेष को या प्रकृति विशेष करे उभारने से काम नहीं चल सकता है। आवश्यक है कि, अन्तरंग और बहिरंग जीवन के हर पक्ष में उत्कृष्टता का समावेश किया जाए। ईश्वर का निवास किसी एक स्थान पर नहीं है। वह सत्प्रवृत्तियों को समुच्चय समझा जाता है। ईश्वर की आराधना के लिए आवश्यक है। कि व्यक्तित्व के समग्र पक्ष को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाया जाय। स्वयं में सत्प्रवृत्तियों का समावेश कर उसके समकक्ष बनने का प्रयास किया जाए।

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Ayurveda has an invaluable gift to India. Ayurveda is a sattvic way of living a life. Living a holistic healthy life is the right of human life. Indian system of medicine is the blessing of mother nature. Which provides healthy life, as well as gives strength to healthy thoughts. Ayurveda is a system of medicine, which prescribes a diet to be consumed as medicine. Ayurveda medicine is a one-step therapy that knows how to thank the human body. Considers the body a priceless gift of God. Ayurveda medicine has the power to build a complete healthy society by considering food as nectar. This method teaches us to live in the present. How is our life? How do we think? What should be the purpose of our life?? Ayurveda gives us this education. It is possible to solve the problem only through Ayurveda! P ure intention is accepted in this method. Your life is on your intention. Pure intention is the basic mantra of Ayurveda. That's why it is the most successful. ...

Faith: The Ultimate Power

Faith is a great power. If there is a deep faith in the mind, then even the most difficult path can be taken forward, and if there is no such faith, then the steps taken on any path in life start going on downward. The mind was terrified by all kinds of doubts. But if there is a belief in the mind that someone is standing behind you to help you, then man is not looking back to do any work anywhere and he can do that work. But if you do not have faith in your mind, then the place where you are standing, the ground is slipping under your feet, you start to feel.  Faith is the foundation that the mind needs, it is a strong foundation. Life is a strong refuge. No matter what the good or bad situation in life, faith is what helps a person to be courageous. To get ahead in any situation in life, one has to first learn to trust someone. Only then can a man move on, first to himself and then to the Lord. If there is no self-belief, no self-confidence, then man feels wea...