अनंत की सत्ता निरंतर ही आपका साथ देती है। आपको जरूरत है इसे अनुभव करने की। यह अनंत परमात्मा की शक्ति आपको जरूरत पड़ने पर मार्ग दिखाने का काम करती है। परमात्मा के विस्तार की कल्पना करना कठिन है। किन्तु अणु के भीतर विद्यमान उस महती शक्ति का सरल साक्षात्कार हो सकता है। पानी के एक बूंद में सरोवर की समस्त विशेषताएं विद्यमान है। उसी प्रकार अग्नि की छोटी सी लौ में अग्नि की दाहकता मौजूद है। बीज में वृक्ष और शक्राणु में समूचा विश्व विराजता है। परब्रम्ह की सत्ता का विराट दर्शन अखंड पुरुषार्थी व्रतधारी को ही होता है। अच्छा हो हम दिशाओं को महकाने वाली कस्तूरी को अपनी ही नाभी में केंद्रीभूत देखे। अपने को समझे ,जगाएं, उभारे और इस योग्य बनाए की उस एक में ही पारस , कल्पवृक्ष और अमृत की उपस्थिति का अनुभव निरंतर होने लगे। मानवी पराक्रम ,विवेक, सार्थकता इसी क्षेत्र की प्रगति से परखी जाती है।
साहस ने हमें पुकारा है। समय ने, कर्त्तव्य ने, उत्तरादायित्व ने, विवेक ने हमें पुकारा है। यह पुकार अनसुनी नही की जा सकेगी। आत्मनिर्माण के लिए, नवनिर्माण के लिए हम कांटों से भरे रास्तों का स्वागत करेंगे और आगे बढ़ेंगे। लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी चिंता कौन करे ? अपनी आत्मा ही मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है। लोग अँधेरे में भटकते हैं, भटकते रहें। हम अपने विवेक के प्रकाश का अवलंबन कर स्वतः आगे बढेगे। कौन विरोध करता है, कौन समर्थन, इसकी गणना कौन करे ? अपनी अंतरात्मा, अपना साहस अपने साथ है। सत्य के लिए, खुद के लिए, न्याय के लिए हम आगे बढ़ेंगे। तुम सुख-दुःख की अधीनता छोड उनके ऊपर अपना स्वामित्व स्थापन करो और उसमें जो कुछ उत्तम मिले उसे लेकर अपने जीवन को नित्य नया ऊर्जावान बनाओ। जीवन को उन्नत करना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है, इसलिए तुम भी उचित मार्ग ग्रहण कर इस कर्त्तव्य को सिद्ध करो।
प्रतिकूलताओं से डरोगे नहीं और अनुकूलता ही को सर्वस्व मानकर प्रमाद नही करोगे तो सब कुछ कर सकोगे। जो मिले उसी से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उच्च बनाओ। यह जीवन जैसे जैसे उच्च बनेगा वैसे ही आज जो तुम्हें प्रतिकूल प्रतीत होता है, वह सब अनुकूलन दीखने लगेगा और अनुकूलता आने पर दुःख की निवृत्ति हो जावेगी। 'हमारी कोई सुनता नहीं, कहते-कहते थक गए, पर सुनने वाले कोई सुनते नहीं अर्थात उन पर कुछ असर ही नहीं होता है। इसमें सुनने वाले से अधिक दोष कहने वाले का है। कहने वाले करना नहीं जानते वे अपनी ओर देखें। आत्मनिरीक्षण कार्य की शून्यता की साक्षी दे देगा। वचन की सफलता का सारा श्रेय कर्मशीलता में है। आप चाहे बोलें नहीं, थोड़ा ही बोलें पर कार्य में जुट जाइए। आप थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि लोग बिना कहे आपकी ओर आकर्षित हो
रहे हैं। अत: कहिए कम, करिए अधिक, क्योंकि बोलने का प्रभाव तो क्षणिक होगा और कार्य का प्रभाव स्थाई होता है।
जो लोगों के कथनी और करनी के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर देखा जा सकता है। ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य की आशा धूमिल ही होती चली जा रही है। क्या हम सब ऐसे ही समय की प्रतीक्षा में, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें। अपने को असहाय, असमर्थ अनुभव करते रहें ,और स्थिति बदलने के लिए किसी दूसरे पर आशा लगाए बैठे रहें। मानवी पुरुषार्थ कहता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। लोभ ,मोह, ,यश के झोंके और दबाव ऐसे हैं कि आदमी को लंबी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं, और कहाँ से कहाँ घसीट लें जाते हैं। बहुत से व्यक्तियों में जो सिद्धांतवाद की राह पर चले इन्हीं के कारण भटककर कहाँ से कहाँ जा पहुँचे। आप भटकना मत!! आपको जब कभी भटकन आए तो आप अपने उस दिन की उस समय की मनःस्थिति को याद कर लेना जबकि आपके भीतर से श्रद्धा का एक अंकुर उगा होगा। उसी बात को याद रखना कि परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए उसमें कमी तो नहीं आ रही। लगन आदमी के अंदर हो तो सौ गुना काम करा लेती है। इतना काम करा लेती है कि हमारे काम को देखकर आपको ही आश्चर्य होगा।
अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम नही चलेगा। हमारी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं के लिए दूसरे उत्तरदायी नहीं वरन हम स्वयं ही हैं। दूसरे व्यक्तियों, परिस्थितियों एवं प्रारब्ध भोगों का भी प्रभाव होता है। पर तीन चौथाई जीवन तो हमारे आज के दृष्टिकोण एवं कर्त्तव्य का ही प्रतिफल होता है। अपने को सुधारने का काम हाथ में लेकर हम अपनी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को आसानी से हल कर सकते हैं। प्रभाव उनका नहीं पड़ता जो बकवास तो बहुत करते हैं, पर स्वयं उस ढाँचे में ढलते नहीं। जिन्होंने चिंतन और चरित्र का समन्वय अपने जीवनक्रम किया है, उनकी सेवा साधना सदा फलती-फूलती रहती है। क्या करें, परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हैं, कोई हमारी सहायता नहीं करता, कोई मौका नहीं मिलता आदि शिकायतें निरर्थक हैं। अपने दोषों को दूसरों पर थोपने के लिए इस प्रकार की बातें अपने दिल में कुछ क्षणों के लिए कही जाती हैं। लोग कभी प्रारब्ध को मानते हैं, कभी देवी-देवताओं के सामने नाक रगड़ते हैं। इस सबका कारण है अपने ऊपर विश्वास का न होना। दूसरों को सुखी देखकर हम परमात्मा के न्याय पर उँगली उठाने लगते हैं। पर यह नहीं देखते कि जिस परिश्रम से इन सुखी लोगों ने अपने काम पूरे किए है क्या वह हमारे अंदर है? ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता उसने वह आत्मशक्ति सबको मुक्त हाथों से प्रदान की है, जिसके आधार पर उन्नति की जा सके।
जब निराशा और असफलता को अपने चारों ओर मंडराते देखो तो समझो कि तुम्हारा चित्त स्थिर नहीं, तुम अपने ऊपर विश्वास नहीं करते। वर्तमान दशा से छुटकारा नहीं हो सकता जब तक कि अपने पुराने विचारों को बदल न डालो। जब तक यह विश्वास न हो जाए कि तुम अपने अनुकूल चाहे जैसी अवस्था निर्माण कर सकते हो, तब तक तुम्हारे पैर उन्नति की ओर बढ़ नहीं सकते। अगर आगे भी न सँभलोगे तो हो सकता है कि, दिव्य तेज किसी दिन बिलकुल ही क्षीण हो जाए। यदि तुम अपनी वर्तमान अप्रिय अवस्था से छुटकारा पाना चाहते हो तो अपनी मानसिक निर्बलता को दूर भगाओ। अपने अंदर आत्मविश्वास जाग्रत करो। इस बात का शोक मत करो कि, मुझे बार-बार असफल होना पड़ता है। परवाह मत करो क्योंकि समय अनंत है। बार-बार प्रयत्न करो और आगे की ओर कदम बढ़ाओ। निरंतर कर्त्तव्य करते रहो, आज नहीं तो कल तुम सफल होकर रहोगे। सहायता के लिए दूसरों के सामने मत गिड़गिड़ाओ क्योंकि यथार्थ में किसी में भी इतनी शक्ति नहीं है जो तुम्हारी सहायता कर सके। किसी कष्ट के लिए दूसरों पर दोषारोपण मत करो, क्योंकि यथार्थ में कोई भी तुम्हें दुःख नहीं पहुँचा सकता। तुम स्वयं ही अपने मित्र हो और स्वयं ही अपने शत्रु हो। जो कुछ भली-बुरी स्थितियाँ सामने हैं, वह तुम्हारी ही पैदा की हुई हैं। अपना दृष्टिकोण बदल दोगे तो दूसरे ही क्षण यह भय के भूत अंतरिक्ष में छू मंतर हो जाएंगे।
आपके विषय में, आपकी योजनाओं के विषय में, आपके उद्देश्यों के विषय में अन्य लोग जो कुछ विचार करते हैं, उस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है, अगर वे आपको कल्पनाओं के पीछे दौड़ने वाला उन्मुख अथवा स्वप्न देखने वाला कहें तो उसकी परवाह मत करो। तुम अपने व्यक्तित्व पर श्रद्धा को बनाए रहो। किसी मनुष्य के कहने से, किसी आपत्ति के आने से अपने आत्मविश्वास को डगमगाने मत दो। आत्मश्रद्धा को कायम रखोगे और आगे बढ़ते रहोगे तो जल्दी या देर में ही सही प्रकृति आपको रास्ता दे ही देगी।
आगे भी प्रगति के प्रयास तो जारी रखे ही जाएँ, पर वह सब समर्पण भाव से ही किया जाए। संसारचक्र के बदलते क्रम के अनुरूप अपनी मनःस्थिति को तैयार रखा जाए। लाभ, सुख, सफलता, प्रगति, वैभव आदि मिलने पर अहंकार से ऐंठने की जरूरत नहीं है। कहा नहीं जा सकता कि वह स्थिति कब तक रहेगी? ऐसी दशा में रोने, खोजने, निराश, होने में शक्ति नष्ट करना व्यर्थ है। परिवर्तन के अनुरूप अपने को ढालने में, ख़ुद को सुधारने में सोचे, हल निकालने और तालमेल बिठाने में मस्तिष्क को लगाया जाए तो यह प्रयत्न अधिक श्रेयस्कर होगा।
बुद्धिमानी इसी में है कि जो उपलब्ध है। उसका आनंद लिया जाए और संतोष भरा संतुलन बनाए रखा जाए। एक साथ बहुत सारे काम पूर्ण करने के चक्कर में मनोयोग से कोई कार्य पूरा नहीं हो पाता। आधा-अधूरा कार्य छोड़कर मन दूसरे कार्यों की ओर दौड़ने लगता है। यहीं से श्रम, समय की बरबादी प्रारंभ होती है, तथा मन में आत्मग्लानि उत्पन्न होती है। विचार और कार्य सीमित एवं संतुलित कर लेने से श्रम और शक्ति का अपव्यय रुक जाता है, और व्यक्ति सफलता के सोपानों पर चढ़ता चला जाता है। कोई भी काम करते समय अपने मन को उच्च भावों से और संस्कारों से ओत-प्रोत रखना ही सांसारिक जीवन में सफलता का मूल मंत्र है। हम जहाँ रह रहे हैं उसे नहीं बदल सकते पर अपने आपको बदलकर हर स्थिति में आनंद ले सकते हैं। मानसिक तनाव बने रहने का, निरर्थक उलझनों में फँसे रहने का मुख्य कारण है। इससे छुटकारा पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम चुपचाप शांतिपूर्वक अपना काम करते चलें और लोगों को अपने हिसाब से चलने दें। किसी व्यक्ति पर हावी होने की कोशिश न करें और न ही हर किसी को खुश रखने के चक्कर में अपने अमूल्य समय और शक्ति का अपव्यय ही करें। यह सोचना निरर्थक है, कि कोई हमारी ही बात माने, उसी के अनुसार चले, हममें ही रुचि और हमारी ही सहायता करे। वायर दूसरो से इच्छा रखना गलत भी हैं और हानिकारक भी। दूसरों पर भावनात्मक रूप से आश्रित नही होना श्रेयस्कर है।
अस्त-व्यस्त जीवन जीना, जल्दबाजी करना, रात-दिन व्यस्त रहना, हर पल-क्षण को काम-काज में ढूँसते रहना भी मनःक्षेत्र में भारी तनाव पैदा करते हैं। अतः यहाँ यह आवश्यक हो जाता है, कि अपनी जीवन-विधि को, दैनिक जीवन को विवेकपूर्ण बनाकर चलें। ईमानदारी, संयमशीलता, सज्जनता, नियमितता, सुव्यवस्था से भरा-पूरा हलका-फुलका जीवन जीने से ही मनः शक्ति का सदुपयोग होता है और ईश्वर- प्रदत्त क्षमता से समुचित लाभ उठा सकने का सुयोग बनता है। कर्त्तव्य के पालन का आनंद लूटो और विघ्नों से बिना डरे लढ़ते रहो। यही है धर्म का सारतत्त्व है। संसार के सारे महापुरुष प्रारंभ में साधारण श्रेणी, योग्यता, क्षमताओं के व्यक्ति रहे हैं। इतना होने पर भी उन्होंने अपने प्रति दृष्टिकोण हीन नहीं बनने दिया और निराशा को पास नहीं फटकने दिया। आत्मविश्वास एवं अविरल आत्मबल के ऊपर वे कदम से कदम आगे बढ़ते ही गए । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वे लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। साधनों की कमी और अल्प योग्यता से होते हुए भी देश, धर्म, समाज और मानवता की सेवा में अपने जीवन की आहुति समर्पित कर समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत कर गए और इतिहास की यही सीख है। इसलिए अपने आत्मबल पर पूर्ण विश्वास रखो और खुद से कहो मैं अपने भाग्य के रचैता हूं।
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