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"ऑटो सजेशन" की अनोखी पहल है, "तुलसी"

तुलसी एक दैविक वनस्पति है, इसलिए तुलसी का सनातन समाज में बहुत महत्व था। आज भी पूजा-पाठ में तुलसी के पत्तों की जरूरत पड़ती है। पंचामृत व चरणामृत, दोनों में तुलसी के पत्ते अनिवार्य हैं। एक समय था जब भारत के हर घर-आँगन में तुलसी का चौरा (तुलसी लगाने का स्थान) होता था, क्योंकि पवित्रता में तुलसी का स्थान गंगा से भी ऊँचा है।

जब से संसार में सभ्यता का उदय हुआ है, मनुष्य रोग और औषधि इन दोनों शब्दों को सुनते आए हैं। जब हम किसी शारीरिक कष्ट का अनुभव करते हैं तभी हमको 'औषधि' की याद आ जाती है, पर आजकल औषधि को हम जिस प्रकार 'टेबलेट', 'मिक्चर', 'इंजेक्शन', 'कैप्सूल' आदि नए-नए रूपों में देखते हैं, वैसी बात वैदिक समय में न थी। उस समय सामान्य वनस्पतियाँ और कुछ जड़ी-बूटियाँ ही स्वाभाविक रूप में औषधि का काम करती थीं और उन्हीं से बड़े-बड़े रोग शीघ्र निर्मूल हो जाते थे, तुलसी भी उसी प्रकार की औषधियों में से एक हैं। जब तुलसी के निरंतर प्रयोग हमारे वैदिक वैज्ञानिक
ऋषियों ने यह अनुभव किया कि, यह वनस्पति एक नहीं सैकड़ों छोटे-बड़े रोगों में लाभ पहुँचाती है और इसके द्वारा आसपास का वातावरण भी शुद्ध और स्वास्थ्यप्रद रहता है तो उन्होंने विभिन्न प्रकार से इसके प्रचार का प्रयत्न किया। उन्होंने प्रत्येक घर में तुलसी का कम से कम एक पौधा लगाना और अच्छी तरह से देखभाल करते रहना धर्म कर्त्तव्य बतलाया। खास धार्मिक स्थानों पर 'तुलसी वृंदावन' बनाने की भी उन्होंने सलाह दी, जिसका प्रभाव दूर तक के वातावरण पर पड़े।

धीरे-धीरे तुलसी के स्वास्थ्य प्रदायक गुणों और सात्विक प्रभाव के कारण उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि लोग उसे भक्ति भाव की दृष्टि से देखने लगे, उसे पूज्य माना जाने लगा। इस प्रकार तुलसी की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ गई, क्योंकि जिस वस्तु का प्रयोग श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाता है, उसका प्रभाव बहुत शीघ्र और अधिक दिखलाई पड़ता है। हमारे यहाँ के आयुर्वेद के ग्रंथों में कई स्थानों पर चिकित्सा कार्य के लिए जड़ी-बूटियाँ संग्रह करते समय उनकी स्तुति-प्रार्थना करने का विधान बतलाया गया है, और यह भी लिखा है कि उनको तिथियों या नक्षत्रों में तोड़कर या काटकर लाया जाए। इसका कारण यही है कि इस प्रकार की मानसिक भावना के साथ ग्रहण की हुई औषधियाँ लापरवाही से बनाई गई दवाओं की अपेक्षा कहीं अधिक लाभप्रद होती हैं।

कुछ लोगों ने यह अनुभव किया कि तुलसी केवल शारीरिक  व्याधियों को ही दूर नहीं करती, अपितु मनुष्य के आंतरिक भावों और विचारों पर भी उसका कल्याणकारी प्रभाव पड़ता है। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार किसी भी पदार्थ की परीक्षा केवल उसके प्रत्यक्ष गुणों से ही नहीं की जानी चाहिए, वरन उसके सूक्ष्म और कारण प्रभाव को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। तुलसी के प्रयोग से ज्वर, खाँसी, जुकाम, संक्रामक रोग आदि जैसी अनेक बीमारियों में तो लाभ पहुँचता ही है, उससे मन में पवित्रता, शुद्धता और भक्ति की भावनाएँ भी बढ़ती हैं। इसी तथ्य को लोगों की समझ में बैठाने के लिए शास्त्रों में कहा गया है,

त्रिकाल बिनता पुत्र प्रयाश तुलसी यदि । 
विशिष्यते कायशुद्धिश्चान्द्रायण शतं बिना ॥ 
तुलसी गन्धमादाय यत्र गच्छन्ति मारुतः । 
दिशो दशश्च पूतास्तुर्भूत ग्रामश्चतुर्विधः ॥

अर्थात, 'यदि प्रातः, दोपहर और संध्या के समय तुलसी का सेवन किया जाए तो उससे मनुष्य की काया इतनी शुद्ध जाती है। जितनी अनेक बार चांद्रायण व्रत करने से भी नहीं होती। तुलसी की गंध वातावरण के साथ जितनी दूर तक जाती है, वहाँ की वायु और निवास करने वाले सब प्राणी पवित्र निर्विकार हो जाते हैं।'


तुलसी की यह महिमा, गुण-गरिमा केवल कल्पना ही नहीं हैं। भारतीय जनता हजारों वर्षों से इसको प्रत्यक्ष अनुभव करती आई है, और इसलिए प्रत्येक देवालय, तीर्थस्थान और सद्गृहस्थों के घरों में तुलसी को स्थान दिया गया है। वर्तमान स्थिति में भी कितने ही आधुनिक विचारों के देशी और विदेशी व्यक्ति उसकी विशेषताओं को स्वीकार करते हैं, और वातावरण को शुद्ध करने के लिए तुलसी के पौधों के गमले अपने बँगलो पर रखने की व्यवस्था करते हैं, फिर तुलसी का पौधा जहाँ रहेगा सात्विक भावनाओं का विस्तार तो करेगा ही। इसलिए हम चाहे जिस भाव से तुलसी के संपर्क में रहें, हमको उससे होने वाले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक लाभ न्यूनाधिक परिमाण में प्राप्त होंगे ही। तुलसी से होने वाले इन सब लाभों को समझकर पुराणकारों ने सामान्य जनता में उसका प्रचार बढ़ाने के लिए अनेक कथाओं की रचना कर डाली, साथ ही उसकी षोडशोपचार पूजा के लिए भी बड़ी लंबी-चौड़ी विधियाँ अपनाकर तैयार कर दीं। यद्यपि इन बातों से अशिक्षित जनता में अनेक प्रकार के अंधविश्वास भी फैलते हैं और तुलसी विवाह के नाम पर अनेक लोग हजारों रुपये खर्चा कर डालते हैं, पर इससे हर स्थान पर तुलसी का पौधा लगाने की प्रथा अच्छी तरह फैल गई। पुराणकारों ने तुलसी में समस्त देवताओं का निवास बतलाते हुए यहाँ तक कहा है,

तुलसस्यां सकल देवाः वसन्ति सततं यतः । 
अतस्तामचयेल्लोकः सर्वान्देवानसमर्चयन ॥
अर्थात, तुलसी में समस्त देवताओं का निवास सदैव रहता है। इसलिए जो लोग उसकी पूजा करते हैं, उनको अनायास ही सभी देवों की पूजा का लाभ प्राप्त हो जाता है।

तत्रे कस्तुलसी वृक्षस्तिष्ठति द्विज सत्तमा । 
यत्रेव त्रिदशा सर्वे ब्रह्मा विष्णु शिवादय ॥
जिस स्थान पर तुलसी का एक पौधा रहता है, वहाँ पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि समस्त देवता निवास करते हैं।

पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्या सरितस्तथा । 
वासुदेवादयो देवास्तिष्ठन्ति तुलसी दले ॥
तुलसी पत्रों में पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि सरिताएँ और वासुदेव आदि देवों का निवास होता है।

रोपनात् पालनात् सेकात् दर्शनात्स्पर्शनान्नृणाम् ।
तुलसी दह्यते पाप बाड्मनः काय संचितम् ॥ 
‘तुलसी के लगाने एवं रक्षा करने, जल देने, दर्शन करने, स्पर्श करने से मनुष्य के वाणी, मन और काया के समस्त दोष नष्ट होते हैं।'

सर्वोषधि रसेन व पुराह अमृत मन्थने । 
सर्वसत्वोपकाराय विष्णुना तुलसी कृताः ॥
प्राचीनकाल में 'अमृत मंथन' के अवसर पर समस्त औषधियों और रसों (भस्मों) से पहले विष्णु भगवान ने समस्त प्राणियों के उपकारार्थ तुलसी को उत्पन्न किया।

तुलसी की रोगनाशक शक्ति इस प्रकार प्राचीन ग्रंथकारों ने तुलसी की महिमा को सर्वसाधारण के हृदय में जमाने के लिए उसकी बड़ी प्रशंसा की है और उसके अनेक लाभ बतलाए गए हैं। इनमें से शरीर संबंधी गुण अर्थात तुलसी की रोगनाशक शक्ति तो प्रत्यक्ष ही है और विशेषतः कफ, खाँसी, ज्वर संबंधी औषधियों के साथ तुलसी को भी सम्मिलित करने का विधान है। भारतीय चिकित्सा विधान में सबसे प्राचीन और मान्य ग्रंथ चरक संहिता में तुलसी के गुणों का वर्णन करते हुए। कहा गया है,

हिक्काज विषश्वास पार्श्व शूल विनाशिनः ।
पित्तकृतत्कफवातघ्न सुरसः पूर्ति गन्धहा ॥ 
अर्थात 'सुरसा (तुलसी) हिचकी, खाँसी, विष विकार, पसली के दर्द को मिटाने वाली है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित कफ तथा वायु का शमन होता है, यह दुर्गंध को भी दूर करती है।

' दूसरे प्रसिद्ध ग्रंथ 'भाव प्रकाश' में कहा गया है,

तुलसी कटुका तिक्ता हृदयोष्णा दाहिपित्तकृत।
दीपना कष्टकृच्छ स्त्रापाश्र्व रुककफवातजित ॥
तुलसी कटु, तिक्त हृदय के लिए हितकर, त्वचा के रोगों में लाभदायक, पाचन शक्ति को बढ़ाने वाली, मूत्रकृच्छ के कष्ट को मिटाने वाली है, यह कफ और वात संबंधी विकारों को ठीक करती है।

आयुर्वेद के ज्ञाताओं ने समस्त औषधियों और जड़ी-बूटियों के गुण जानने के लिए 'निघंटु' ग्रंथों की रचना की है, उसमें भी तुलसी के गुण विस्तापूर्वक लिखे गए हैं। 'धन्वन्तरि निघंटु' में कहा गया है,

तुलसी लघुरुष्णाच्य रुक्ष कफ विनाशिनी ।
क्रिमिदोषं निहन्त्यैषा रुचि कृवह्निदीपनी ॥ 
'तुलसी हलकी उष्ण, रूक्ष, कफ दोषों और कृमि दोषों को मिटाने वाली और अग्निदीपक होती है।'

दूसरे 'राजबल्लभ निघंटु' में कहा गया है, 

तुलसी पित्तकृद्वाता क्रिमी दौर्गन्धनाशिनी ।
पश्विशुलापूरतिश्वास कास हिक्काविकारजित ।
'तुलसी पित्तकारक तथा वात कृमि और दुर्गंध को मिटाने वाली है, पसली के दरद, खाँसी, श्वास, हिचकी में लाभकारी है।' 

इसलिए औषधियों के रूप सेवन करने पर भी तुलसी की कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं होती, न उसके कारण शरीर में किसी प्रकार के दूषित तत्त्व एकत्रित होते हैं। तुलसी स्वाभाविक रूप से शारीरिक यंत्रों की क्रिया को सुधारती है और रोग को दूर करने में सहायता पहुँचाती है। डॉक्टरों के तीव्र इंजेक्शन जिनमें कई प्रकार के विष भी हुआ करते हैं और वैद्यों की भस्मों की तरह उससे किसी तरह के कुपरिणाम या प्रतिक्रिया की आशंका नहीं होती। वह तो एक बहुत सौम्य वनस्पति है, जिसके दस-पाँच पत्ते लोग चाहे जब चबा लेते हैं, पर उनसे किसी को हानि होते नहीं देखी गई।

धर्म की दृष्टि से तुलसी में अधिक मात्रा में विष्णु तत्व होते हैं, जो पवित्रता के प्रतीक हैं। इसलिए जिन पदार्थों में तुलसी डालते हैं, वह पवित्र हो जाते हैं और क्योंकि इसके पत्तों में ईश्वरीय तरंगों को आकर्षित करने की क्षमता होती है और वे दैवी शक्ति प्रदान करते हैं। तुलसी की माला विष्णु परिवार से जुड़े देवी-देवताओं के मंत्र जाप के लिए प्रयोग में लाई जाती है। तुलसी की माला धारण करने से एक रक्षा कवच बन जाता है। तुलसी के पत्तों-शाखाओं से एक ऐसा रोगनाशक तेल वायुमंडल में उड़ता है कि इसके आसपास रहने, इसे छूने इसे पानी देने और इसका पौधा रोपने से ही कई रोग नष्ट हो जाते हैं। इसकी गंध दसों दिशाओं को पवित्र करके कवच की तरह प्राणियों को बचाती है। इसके बीजों से उड़ते रहनेवाला तेल तत्त्व त्वचा से छूकर रोम-रोम के विकार हर लेता है। आयुर्वेद के अनुसार तुलसी एक रामबाण पौधा है, जिसका प्रयोग कई प्रकार के शारीरिक कष्टों को दूर करने में होता है। तुलसी दो प्रकार की होती है- एक साधारण हरे पत्ते वाली तथा दूसरी श्यामा तुलसी, जिसके पत्ते छोटे व काले रंग के होते हैं। श्यामा तुलसी पूजा के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है। इसका औषधि के रूप में एक और लाभ यह है कि, तुलसी के पत्तों में कुछ मात्रा में पारा (मरकरि) होता है। मरकरी एक सीमित मात्रा में शरीर के लिए बहुत हितकारी है, पर दाँतों के लिए हानिकारक इस कारण तुलसी के पत्तों को साबुत ही निगला जाता है, दाँतों से चबाया नहीं जाता। 

एक और विशिष्टता तुलसी की यह है कि जहाँ और फूल-पत्तियों की शक्ति मुरझाने पर समाप्त हो जाती है, वहीं तुलसी के पत्तों की शक्ति सूखने पर भी बनी रहती है और ये वातावरण को सात्त्विक बनाए रखते हैं। अगर घर आँगन में, सड़क किनारे या कहीं और तुलसी की बगीची लगा दें तो साँप-बिच्छू अपने आप वहाँ से भाग जाते हैं। इसी कारण, तुलसीवाले घर-आँगन को तीर्थ समान माना जाता है।
बिल्वपत्र (बेल के पत्ते) भी तुलसी की ही भाँति सदा शुद्ध रहते हैं। जहाँ तुलसी में विष्णु तत्त्व होता है, वहीं बिल्व पत्र में शिव तत्व होता है। इनमें भी सूखने के बाद देवता तत्त्व सदैव विद्यमान रहता है और उसे प्रक्षेपित करता रहता है। बिल्वपत्र के चिकने भाग को नीचे की तरफ रखकर शिव पिंडी पर चढ़ाते हैं। तुलसी का एक नाम वृंदा भी है अर्थात् विद्युत् शक्ति इसलिए तुलसी की लकड़ी से बनी माला, गजरा आदि पहनने की प्रथा सदियों से चली आ रही है, क्योंकि इनसे विद्युत् की तरंगें निकलकर रक्त संचार में कोई रुकावट नहीं आने देतीं। इसी प्रकार गले में पड़ी तुलसी की माला फेफड़ों और हृदय को रोगों से बचाती है। आप में से कुछ को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मलेशिया द्वीप में कब्रों पर तुलसी द्वारा पूजन-प्रथा चली आ रही है, जिसका वैज्ञानिक आधार यह है कि मृत शरीर वायुमंडल में दुष्प्रभाव और दुर्गंध नहीं फैलाता। शव को तुलसी पौधे के पास रखने का एक मात्र वैज्ञानिक रहस्य यही है कि शव देर तक सुरक्षित रहता है और मृत शरीर की गंध तुलसी की दुर्गंध से दबी रहती है।

इजराइल में भी तुलसी के बारे में ऐसी ही धारणाएँ हैं। सूर्य-चंद्र के ग्रहण के दौरान बड़े-बुजुर्ग अन्न-सब्जियों में तुलसी दल (पते) इसलिए रखते थे कि सौर मंडल से उस समय आनेवाली विनाशक विकिरण तरंगें खाद्यान्न को दूषित न करें। इस प्रकार ग्रहण के समय तुलसीदल एक रक्षक आवरण का कार्य करता है। तुलसी के पत्ते रात होने पर नहीं तोड़ने का विधान है। विज्ञान यह है कि इस पौधे में सूर्यास्त के बाद इसमें विद्यमान विद्युत्-तरंगें प्रकट हो जाती हैं, जो पत्तियाँ तोड़नेवाले के लिए हानिकारक हैं। इससे उसके शरीर में विकार आ सकता है। तुलसी सेवन के बाद दूध नहीं पीना चाहिए। ऐसा करने से चर्म रोग हो जाने का डर है। 

वर्तमान समय में मानसिक चिकित्सा में आत्मसंकेत (ऑटो सजैशन) का बड़ा महत्त्व है। यदि कोई मनुष्य अपने स्वास्थ्य, विचार और मानसिक प्रवृत्तियों को श्रेष्ठ बनाने के लिए बार-बार किसी काम को मन में लाकर मुँख से कहे और वैसी ही कल्पना करे तो उसमें धीरे-धीरे उन विशेषताओं की वृद्धि होती रहती है जो उद्देश्य आधुनिक विचारों के व्यक्ति 'ऑटो सजैशन' से पूरा करते हैं, उसी को हमारे यहाँ के प्राचीन मनीषियों ने देवताओं की प्रार्थना-स्तुति कवच आदि के माध्यम से प्राप्त करने की विधि निकाली थी। इन दोनों मार्गों की भली प्रकार परीक्षा करने के उपरांत हम कह सकते हैं कि सामान्य स्तर के लोगों के लिए दूसरा मार्ग ही अधिक लाभदायक है, क्योंकि किसी स्थूल पदार्थ को आधार बनाकर प्रयुक्त किया जाता है, पर पहली विधि जो केवल मानसिक भावनाओं और किसी निराकार शक्ति पर आश्रित रहती है।

तुलसी यह विलक्षण वनस्पति हमे माँ प्रकृति की तरफ से मिला हुआ वरदान से कम नहीं है। जो प्राण की चिकित्सा को अनोखा बल प्रदान करती है। तुलसी के विज्ञान को समझकर इस विलक्षण वनस्पति का प्रयोग स्वस्थ समाज को निर्माण करने सक्षम है इस में कोई संशय नहीं है। हमे जरूरत है, तुलसी की कृषि को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने का प्रयत्न किया जाए। तुलसी के पत्ते की तरह तरह की औषधीयॉ और चाय बनाने के अतिरिक्त उसका काढ़ा बनाकर कोरोना जैसे संक्रमण से बचाने में मानव जाति की मदद करेगा।

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