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आध्यात्मिक डायनामाइट"


कुण्डलिनी स्वयं में एक ऐसी शक्ति है जिसका वर्णन करने के लिए प्राचीन एवं अर्वाचीन विद्वानों ने अपने देश काल एवं परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के निकटतम रूपक में प्रयोग किये हैं। कहीं कुण्डलिनी को नारी-पुरूष की सम्मिलित सत्ता का रूप देने के लिए अर्द्धनारीश्वर भगवान की कल्पना की गई है तो कहीं उसकी सर्प वृत्ति का ध्यान करके "साढ़े तीन कुण्डली मारे सर्प" को संज्ञा दी गयी है। आज के परिप्रेक्ष्य में हम इसे विद्युत शक्ति के समान ही एक शक्ति मान सकते हैं। विद्युत शक्ति हीटर में लगा देने पर गर्मी, कूलर में लगा देने से ठंडक, टी.वी. में चलचित्र, रेडियों में गाना, रोगी में स्वास्थ्य आदि देती है तात्पर्य यह है कि शक्ति एक ही है वह अलग-अलग विधि से प्रयोग करने पर अलग-अलग कार्य सम्पन्न कर सकती है। इस प्रकार कुण्डलिनी शक्ति को भी विभिन्न प्रकार के सात्विक, राजसिक और तामसिक कार्यो के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।

कुण्डलिनी जागरण का अर्थ है अपने अंदर छिपे पड़े प्राणशक्ति के भण्डार का योग साधना के माध्यम से स्फोट प्रक्रिया द्वारा रहस्योद्घाटन आत्म कल्याण एवं लोक कल्याण के निमित्त इसके लिए उस द्वार तक पहुंचने के अनेकानेक मार्ग है जहाँ वह चाबी लगायी जाती है जो प्राणाग्नि को उच्चस्तरीय ऊर्जा में बदलकर साधक का ब्रहम्वर्चस् बढ़ा देती है, किंतु कोई भी मार्ग बिना मार्गदर्शक के पार नहीं किया जा सकता। हमारी सुषुम्ना नाड़ी जो मूलाधार से सहस्त्रार तक नीचे से ऊपर सर्पिणी की भांति साढ़े तीन फेरे लगा कर पहुंच कर क्षीर सागर में बैठे सहस्रफणि सर्प में बदल जाती है, हमारा जीवन ऊर्जा का मूलाधार है। इड़ा पिंगला नाड़ी इस प्राणशक्ति की ऊर्ध्वगमन प्रक्रिया साधक की इच्छानुसार नियंत्रण में सहायता करती है। नीचे से ऊपर तक ऐसे अनेकानेक द्वार है, जिनका क्रमशः भेदन कर साधक अपने सहस्त्रार चक्र के आनंदमय कोष को जगा सकता है व आत्म बोध के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। मूलाधार रूपी नीचे वाले द्वार के पास रूद्रग्रंथि है तो सूर्यचक्र के पास शरीर मध्य में विष्णु ग्रंथि एवं मस्तिष्क में यह ब्रम्हाग्रंथि इसी प्रकार सूक्ष्म व कारण शरीर को लपेटे पाँच कोष है जिनसे यह हमारा समग्र ढांचा विनिर्मित हुआ है। यह चौदह रत्न यदि मनुष्य हस्तगत कर ले तो वह देवोपम स्थिति में बंधनमुक्ति एवं आत्म साक्षात्कार की स्थिति में पहुंच जाता है।

कुण्डलिनी विज्ञान का अनुसंधान वस्तुतः प्रसुप्त की जागृति का विज्ञान ही है यदि यह योग शारीरिक बलिष्ठता, मानसिक प्रतिभा एवं आत्मिक वर्चस्व को असाधारण रूप से बढ़ाया जा सकना संभव है। कुण्डलिनी शक्ति की तुलना विद्युत ऊर्जा या आभा से की गयी है। "तडिल्लता समरूचिर्विद्युल्लेखेव भास्वरा  सूत्र में उसे बिजली की लता रेखा जैसा ज्योतिर्मय बताया गया है। इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर उसे प्रचण्ड अग्नि रेखा एवं दिव्य वैश्वानर अग्नि की उपमा दी गयी है। कुण्डलिनी वस्तुतः प्राणाग्नि के रूप में जीवनशक्ति प्राणशक्ति के रूप में ब्रम्हाण्डीय चेतना की आत्मसत्ता में प्रतिष्ठापित प्रतिमूर्ति है जिसका संचालन वह पराप्रकृति ही करती रहती है। यह मानवीय विद्युत शरीर के इर्द-गिर्द फैले तेजोवलय के रूप में शरीर मस्तिष्क के चारों ओर देखी जा सकती है यह एक प्रकार का "आध्यात्मिक डायनामाइट" है जिसकी ऊर्जा यों तो मनुष्य के कण-कण में विद्यमान है किंतु मस्तिष्क हृदय और जननेन्द्रिय मूल में उसकी विशिष्ट मात्रा पायी जाती है।

प्राणाग्नि कुण्डलिनी ही निकट प्रतिकूलताओं से लड़ने वाली जीवनी शक्ति व जिजीविषा - हिम्मत के रूप में मनुष्य में कूट-कूट कर भरी है। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर यह प्रसुप्त ऊर्जा छह तालों की तिजोरी के रूप में बंद है जो षट्चक्र के रूप में भँवर नाड़ी गुच्छक अथवा विद्युत्प्रवाह के रूप में सुषुम्ना व उसके चारों ओर स्थिति है। इसी मार्ग से मनुष्य ऊर्ध्वगमन कर ब्रम्हलोक पहुंचता है ऊर्ध्वगमन शब्द का पर्यायवाची शब्द है उत्थान, उत्कर्ष, अभ्युदय इनसे उच्च स्तर के लोगों की स्थिति का आभास मिलता है। भौतिक बड़प्पन तो साधन सम्पन्नता के आधार पर निकृष्ट कोटि के व्यक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं, पर आत्मिक महानता प्राप्त करने के लिए तो गुण, कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता का सम्पादन ही एक मात्र उपाय है। कुण्डलिनी उत्थान से इसी आंतरिक उत्कर्ष की प्रेरणा मिलती है और अभ्युदय का आधार बनता है। जिसे मानव जीवन का सर्वोपरि सौभाग्य कहा जा सके।

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