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जीवन एक प्रतिप्रसव साधना !


मानव जीवन में समय का अलग ही महत्व है। समय किसी के भी वश में नहीं है। समय का चक्र निरंतर चलता रहता है। समय के साथ जीवन को जीना ही सफल माना जाता है। भारत के प्राचीन वैदिक काल की संस्कृती अपने चरम पर ज्ञान का प्रवाह करती प्रतित होती है। जिस संस्कृती ने समय को ही साधना अभिन्न अंग मानकर संध्या का दर्जा दिया हुआ है। समय का सद्पुयोग कैसे किया जाता है ? यह संस्कृति समस्त मानव जाति को परिचय देती है। सायंकाल की संध्या और प्रातःकाल की संध्या में क्या करें? क्या करना चाहिए, क्या विचार करना चाहिए? आपको इन दोनों समयों में आत्मबोध और तत्त्वबोध की साधना करनी चाहिए। प्रातः काल जब आप उठा करें, तो एक नए जीवन का अनुभव किया करें। यह अनुभव किया कीजिए कि रात को सोने का अर्थ है-'पिछले जन्म की समाप्ति और उस दिन की मौत'। सवेरे उठने का अर्थ है 'नया जन्म'। 'जब आँख खुली तब नया जन्म' आप यह अनुभव कर लिया करें, तो मजा आ जाए। 

आप हर दिन सवेरे यह अनुभव किया कीजिए कि हमारा नया जन्म हो गया। अब नए जन्म में क्या करना चाहिए? आपकी सारी बुद्धिमानी इस बात पर टिकीहुई है कि आपने अपनी जीवन-संपदा का किस तरीके से उपयोग किया? यह मानना सही नहीं है कि ,यह जन्म केवल सोशल मीडिया के लिए मिला हुआ है। नहीं! यह जीवन फ्री में नहीं मिला हुआ है, इसलिए मिला हुआ है कि आप इस जीवन की संपदा को ठीक तरीके से इस्तेमाल करें। यह आपकी परीक्षा है। परीक्षा में जो पास हो जाते हैं, अगली कक्षा में उनके नाम चढ़ा दिए जाते हैं। फिर पास हो जाते हैं, तो और अगली क्लास में प्रवेश दिए जाते हैं। यह जो पहली परीक्षा भगवान ने आपको मनुष्य का जीवन देकर ली है, उसमें आपका एक ही फर्ज हो जाता है कि आप इसका अच्छे से अच्छा उपयोग करके दिखाएँ। बस भगवान ने यही अपेक्षा की है आप से, यही उम्मीद है और यही वह चाहता है। आप लोग विश्वास रखें, इससे भगवान कभी प्रसन्न नहीं हो सकता।

इससे आपको जीवन-संशोधन करने में कार्य-निवारण करने में तो सहायता मिल सकती है, लेकिन जहाँ तक भगवान की प्रसन्नता का ताल्लुक है, वहाँ सिर्फ एक बात है कि आपको जो बहुमूल्य मनुष्य का जीवन दिया गया था, उस जीवन का आपने किस तरीके से और कहाँ उपयोग किया? बस यही एक प्रश्न है, दूसरा कोई प्रश्न नहीं है। जब आपको यह दिया गया है, तो विश्वास रखें कि भगवान ने अपनी बहुमूल्य संपत्ति आपके हाथ कर दी। इससे बड़ी संपत्ति भगवान के खजाने में और कोई नहीं है। मनुष्य के जीवन से बढ़कर और क्या हो सकता है ? आप दूसरे प्राणियों पर नजर डालिए । किसी के भी खाने का ठिकाना नहीं है, कोई कहीं है, तो कोई कहीं है, न बोल सकता है, न लिख सकता है। किंतु आपको सारी सुविधाओं से भरा हुआ जीवन इसलिए दिया गया है कि आप उसका अच्छे से अच्छा उपयोग करके दिखाएँ। क्या अच्छा उपयोग हो सकता है जीवन का ? इसके दो ही अच्छे उपयोग हैं, एक आप स्वयं को ऐसा बनाएँ, जिसको कि आदमी कहा जा सकता है। दूसरों के सामने आपका उदाहरण इस तरीके से पेश होना चाहिए कि जिसको देख करके दूसरे आदमियों को प्रकाश मिले, रोशनी मिले या पीछे चलने का मौका मिले और आपकी अंतरात्मा का कायाकल्प करती हुई साफ और स्वच्छ बनती चली जाए। यह आपका स्वार्थ है। और परमार्थ ? परमार्थ यह है कि भगवान की इस विश्ववाटिका में, जिसमें आपको काम करने के लिए भेजा गया है, उसमें आप एक अच्छे तरीके से काम करें। भगवान को साथियों की जरूरत है, इंजीनियरों की जरूरत है, ताकि उनके इतने बड़े बगीचे, इतने बड़े कारखाने की सुव्यवस्था करने में वे हाथ बँटा सकें। आपको हाथ बँटाने के लिए पैदा किया गया है, खुशामदें करने के लिए नहीं, नाक रगड़ने के नहीं, चापलूसी करने के लिए नहीं,मिठाई, उपहार भेंट करने के लिए नहीं पैदा किया गया। आपको सिर्फ इसलिए पैदा किया गया है कि बेहतरीन जिंदगी जिएँ और भगवान के काम में हाथ बंटाएँ।

आमतौर से आदमी काम की बातें भूल जाते हैं और बेकार को बातें, सब याद रखते हैं। आपको सवेरे उठते ही प्रातःकाल बेड पर पड़े-पड़े यह ध्यान करना चाहिए कि आज हमारा नया जन्म हुआ है और हमको इतनी बड़ी कीमत मिली, संपत्ति मिली कि जिसकी तुलना में और किसी प्राणी को कोई चीज नहीं मिली। आप अपने आप को सौभाग्यवान महसूस कीजिए, भाग्यशाली अनुभव कीजिए। यह अनुभव कीजिए कि हमारे बराबर भाग्यशाली कोई नहीं। अभावों की बात, चिंता की बात, कठिनाइयों की बात आप सोचते रहते हैं, लेकिन यह क्यों नहीं सोचते कि आप कितने शक्तिशाली हैं कि इतना बड़ा जीवन आपको भगवान ने दिया। आप अपने भाग्य को सराहें और सराहना के साथ-साथ एक और बात ध्यान में रखें। आप एक ऐसी 'स्कीम' बनाएँ, 'योजना' बनाएँ, जिससे इस जीवन का अच्छे से अच्छा उपयोग करना संभव हो सके।


यह प्रयोग एक दिन के जीवन से करना चाहिए। जिस दिन आप सोकर उठें, उसी दिन आप यह याद रखिए कि बस हमारे लिए एक ही दिन जिंदगी का है और इस आज के दिन को अच्छे से अच्छा बनाकर दिखाएँ। बस, इतने क्रम को दैनिक जीवन में सम्मिलित कर लें, तो इसे रोज-रोज अपनाते हुए आप अपनी सारी जिंदगी को अच्छा बना सकते हैं। एक-एक दिन को हिसाब से जोड़ देने का मतलब होता है, सारे समय और सारी जिंदगी को ठीक तरह सुव्यवस्थित बना देना। आप प्रातः काल उठा कीजिए और यह ध्यान किया कीजिए कि हर दिन नया जन्म और हर दिन नई मौत' को आप प्रातः काल से सायंकाल तक कैसे प्रयोग करेंगे? इसके लिए सुबह से ही उठकर टाइमटेबिल बना लेना चाहिए कि आज आप क्या करेंगे, कैसे करेंगे और क्यों करेंगे ? क्रिया के साथ में आप चिंतन को जोड़ दीजिए। चिंतन और क्रिया को जोड़ देते हैं, तो दोनों से एक समग्र स्वरूप बन जाता है। आप शरीर से काम करते रहें, मगर कोई उद्देश्य न हो अथवा अगर आप उद्देश्य ऊँचे रखें, लेकिन उसे क्रियान्वित करने का कोई मौका न हो, तो दोनों ही बातें बेकार हो जाएँगी।

इसलिए, सवेरे उठते ही जहाँ आप अपने मनुष्य जीवन पर गौरव का अनुभव करें, वहाँ एक बात और साथ-साथ में चालू कर दें, सुबह प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक का एक ऐसा टाइमटेबिल बनाएँ जिसकी कि सिद्धांतवादी कहा जा सके, आदर्शवादी कहा जा सके। इसमें भगवान की हिस्सेदारी रखिए। शरीर के लिए भी गुजारे का समय निकालिए, भगवान के लिए भी गुजारे का समय निकालिए। आपके जीवन में भगवान भी तो हिस्सेदार है, उसके लिए भी तो कुछ करना है। आपका शरीर ही सब कुछ थोड़े ही है, आत्मा भी तो कुछ है। आत्मा के लिए भी तो कुछ किया जाना चाहिए। सब कुछ शरीर को ही खिलाने पिलाने के लिए करेंगे क्या ? ऐसा क्यों करेंगे ? आत्मा का कोई औचित्य नहीं है क्या? आत्मा की कोई इज्जत नहीं है क्या? आत्मा का कोई मूल्य नहीं है क्या? आत्मा से आपका कोई संबंध नहीं है क्या ? अगर है तो फिर आपको ऐसा करना पड़ेगा कि साथ-साथ दिनचर्या में आदर्शवादी सिद्धांतों को मिलाकर रखना पड़ेगा।

अपनी दिनचर्या ऐसी बनाइए जिसमें आपके पेट भरने की भी गुंजाइश हो और अपने कुटुंब के, परिवार के लोगों के लिए भी गुंजाइश हो। लेकिन साथ-साथ में एक और गुंजाइश होनी चाहिए कि अपनी आत्मा को संतोष देने के लिए और परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए कार्यों का और विचारों का भी समावेश हो। आप स्वाध्याय का दैनिक जीवन में स्थान रखिए। आप सेवा का दैनिक जीवन में स्थान रखिए, आप उपासना का दैनिक जीवन में स्थान रखिए। इन सब बातों का समन्वित जीवन का अभ्यास कर लें, तो वह प्रातः काल वाला संध्यावंदन पूरा हो जाएगा। जीवन की अनुभूति, जीवन की महत्ता की अनुभूति के साथ-साथ में सोते समय तक की सारी कार्यविधि का निर्धारण अगर आप कर लेते हैं, तो फिर आपकी उन-उन खुराफातों से बचत हो जाएगी, जो कि आप व्यवस्थित जीवन के अभाव में करते रहते हैं। जो आदमी व्यस्त है, वह एक निर्धारित लक्ष्य में लगा रहता है। जो आदमी खाली है अर्थात जो शरीर से खाली होगा, तो उसका दिमाग भी खाली होगा और दिमाग का खाली होना शैतान की दुकान है। इसलिए अपना दिमाग शैतान की दुकान न होने पाए और आपका शरीर खाली रहने की वजह से दुष्प्रवृत्तियों में न लगने पाए, इसके लिए बहुत अधिक आवश्यक है कि आप व्यस्तता से भरा हुआ टाइमटेबिल और कार्यक्रम बना लें और उस पर चलें। न केवल टाइमटेबिल बना लें, वरन यह भी हर समय ध्यान रखें कि जो सवेरे कार्यपद्धति बनाई गई थी, वह ठीक तरीके से प्रयोग होती भी है कि नहीं।

आप अपने टाइमटेबिल में विश्राम का समय भी नियत रखें। यह कोई नहीं कहता कि विश्राम मत रखिए, लेकिन विश्राम भी एक समय से होना चाहिए, टाइम से होना चाहिए और एक विधि से होना चाहिए। चाहे जरा सा काम किया और फिर विश्राम, जरा सा काम और फिर विश्राम, ऐसे कोई काम होते हैं क्या ? काम करने की शैली ही कर्मयोग है। कर्मयोग को अगर आप ज्ञानयोग में मिला दें, संध्यावंदन में मिला दें, तो मजा आ जाए, सारी की सारी दिनचर्या को आप भगवान का कार्य मानकर चलें, तो फिर समझिए आपकी प्रातःकाल की संध्या पूर्ण हो गई। इसके बाद अब सायंकाल की संध्यावंदन का नंबर आ गया। आप सायंकाल की संध्या उस समय किया कीजिए, जब आप सोया करें। जब भी सोएँ नौ बजे, ग्यारह बजे, बारह बजे, सोना तो आखिर है ही आपको। जब सोएँगे, तो यह बात भी सही है कि आप नींद की गोद में अकेले ही जाएँगे। ठीक है, बच्चे बगल में सोते हों तो क्या और कोई सोता हो तो क्या, परंतु नींद तो आपको अकेले ही को आएगी न दो को तो एक साथ नहीं आ सकती? आप सुबह उठेंगे, तो अकेले उठेंगे न, दो तो एक साथ नहीं उठ सकते? यह आपका एकांत जीवन है। सायंकाल को सोते समय आप उस एकांत जीवन में ऐसे विचार किया कीजिए कि हमारे जीवन का अब समाप्ति का समय आ गया है, अंत आ गया। अंत को लोग भूल जाते हैं। आदि को भूल जाते हैं बस, मध्य में ही उलझे रहते हैं।

यदि आपको मनुष्य जन्म का सौभाग्य मिला हुआ हैं, और उसको ठीक तरीके से उपयोग करने का निर्धारण और अंत ? अंत वह है जिसमें भगवान के दरवाजे पर जाना ही पड़ेगा, भगवान की कोर्ट में पेश होना ही पड़ेगा, इससे कोई बचत नहीं हो सकती। आपको भी दूसरों की तरह मरना ही पड़ेगा और मरना भी चाहिए। यह नहीं हो सकता कि आपके मरने का कोई दिन न आए, जरूर आएगा, निश्चित आएगा। जब आपके मरने का दिन आएगा, तो फिर क्या होगा? तब आपको यहाँ से जाने के बाद में सीधे भगवान के दरबार में जाना पड़ेगा और सिर्फ एक बात का जवाब देना पड़ेगा कि आपने इस जिंदगी का कैसे इस्तेमाल किया? अगर आपने ठीक तरीके से इस्तेमाल नहीं किया है, तो भगवान आपसे बेहद नाराज होंगे, भले ही आपने अनुष्ठान किया हो। इसलिए रात्रि को सोते समय यह ख्याल किया कीजिए कि अब हमारे जीवन का अंत है और अंत को अगर आप ध्यान कर लें तब ? तब फिर आप चौंक पड़ेंगे। जिंदगीभर आदमी न जन्म को याद करता है, न मौत को याद करता है। अगर मौत को याद करे, तो मजा आ जाए। सिकंदर जब मरने को हुआ, तो उसने सब लोगों को बुलाया और कहा कि हमारा सब माल-खजाना हमको दीजिए, हम साथ लेकर के जाएँगे। क्योंकि बड़ी मेहनत से भी कमाया है और बड़ी बेईमानी से भी कमाया है। उसने जो कमाया था, लोगों ने वह सब उसके सामने रख दिया। सिकंदर कहने लगा कि इसे हमारे साथ भेजने का इंतजाम करो। लोगों ने कहा, यह कैसे हो सकता है? यह सब चीजें तो यहीं की थीं और यहीं पड़ी रह जाएँगी। आप तो बेकार ही कहते हैं कि यह हमारे साथ जाएगा। आपके साथ तो आपका पुण्य और पाप जाएगा और कुछ नहीं जा सकता। काश! हमें हर पल मौत याद रहे।

सिकंदर फूट-फूटकर रोने लगा। उसने कहा कि अगर मुझे यह मालूम होता कि मेरे साथ में केवल पुण्य-पाप ही जाने वाला है, तो मैं इस छोटीसी जिंदगी को गुनाहों से भरी हुई न बनाता। फिर मैं भगवान बुद्ध के तरीके से जिया होता, सुकरात के तरीके से जिया होता, ईसा के तरीके से जिया होता। ऐसी गलती क्यों कर डाली? इस संपदा को, जिसकी मुझे जरूरत नहीं थी, उसी को मैं इकट्ठा करता रहा। यह क्यों करता रहा? मौत तो होनी ही है। उसको जब मौत याद आई, तो वह बार-बार यही बोला, मरते वक्त मेरे दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकालकर रखना। उसने अपने सैनिकों से कहा कि आप लोग जब हमें दफनाने के लिए जाएँ, तो हमारे दोनों हाथ हमारे जनाजे से बाहर निकाल देना, ताकि लोग यह देखें कि सिकंदर खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया। यह वैराग्य श्मशान घाट में ही बन सकता है। श्मशान घाट की एवं मौत की याद आपको आ जाए, तो आप निश्चित ही जो घिनौनी जिंदगी जी रहे हैं, उसकी कतई इच्छा नहीं होगी। फिर आप यह कहेंगे कि इस नए मौके का अच्छे से अच्छा उपयोग क्यों न कर लिया जाए।

फिर आप क्या करेंगे? फिर आप अपना टाइमटेबिल और अपनी नीति ऐसी बनाएँगे जैसे कि राजा परीक्षित ने बनाई थी। राजा परीक्षित को मालूम पड़ गया था कि आज से सातवें दिन साँप काट खाएगा। उसने यह निश्चय किया कि इन सात दिनों का अच्छे से अच्छा उपयोग करेंगे। उन्होंने भागवत कथा का अनुष्ठान किया और दूसरे अच्छे कर्म किए। इससे उनकी मुक्ति हो गई। सात दिन में तो सबको ही साँप काटने वाला है। आपको भी सात दिन में ही काटेगा। कुल सात ही दिन तो होते हैं न, मौत का साँप इन्हीं दिनों में तो काटता है। सातवें दिन के बाद आठवाँ दिन कहाँ है? इसलिए आप भी राजा परीक्षित के तरीके से विचार कर सकते हैं कि हमारी बची हुई जिंदगी, जो मौत के दिनों के बीच में बाकी रह गई है, इसका हम अच्छे से अच्छा कैसे उपयोग कर सकते हैं? सायंकाल को आप विचार किया कीजिए कि उसका कैसे अच्छे से अच्छा उपयोग किया जाए। सायंकाल को दिनभर के कार्यों की समीक्षा किया कीजिए और समीक्षा करने के बाद में यदि लगे कि हमने गलती की या नहीं की। यदि की है, तो उसके लिए अपने को तुच्छ नहीं समझे, धमकाइए नहीं, वरन अपने आपको इस बात के लिए रजामंद कीजिए कि जो कुछ आज कमियाँ रह गईं अथवा गलतियाँ हो गईं, वह कल नहीं रहेंगी। कल हम उसी कमी को पूरा कर लेंगे, गलती को सुधार लेंगे। फिर क्या हो जाएगा? कमी की पूर्ति हो जाएगी। अगली बार गलती नहीं होगी, काम बहुत अच्छा हो जाएगा। गलतियों से सीखें, आत्मचिंतन करते रहें।

इस तरह प्रातःकाल जिस तरीके से आपने आज की नीति का निर्धारण किया था, उसी तरीके से आज की गलतियों का और आज की सफलताओं का अनुमान लगाते हुए कल की बात की आप तैयारी कर सकते हैं कि कल हमको कैसे जीना है? यह सब आप रात को सोने से पहले तय कर लेंगे, तो दूसरे दिन आपको सफलता मिलेगी, चिंतन करेंगे, तो थोड़ा कठिन पड़ेगा। इसलिए हर दिन सोते समय में, मौत की गोद में, नींद की गोद में जाते समय यह विचार लेकर जाया करें कि अब हम इस संसार से चले और भगवान के यहाँ गए। ऐसी स्थिति में फिर आपको क्या करना चाहिए? लगाव को कम करना चाहिए। लोगों से, वस्तुओं से आपका लगाव जितना ज्यादा होगा, आप उतना ही ज्यादा कष्ट पाएँगे। आप लगाव को कम कीजिए। लगाव ही ज्यादा कष्टकारक है, जिम्मेदारियों का निभाना ज्यादा कष्टकारक नहीं है। जिम्मेदारियाँ तो आपको निभानी ही चाहिए। आप अपनी जिम्मेदारी माता के प्रति निभाइए, पत्नी के प्रति निभाइए, बच्चों के प्रति निभाइए और समाज के प्रति निभाइए, लेकिन लगाव आपको बहुत हैरान कर देगा। हमारा ही बच्चा है, यह आप क्यों कहते हैं? यह क्यों नहीं सोचते और कहते कि भगवान का बच्चा है।

आप रात्रि को जब सोया करें और मौत को जब याद किया करें, तो साथ में दो बातें और भी याद कर लिया करें कि हम खाली हाथ जा रहे हैं। लालच हमारे साथ जाने वाला नहीं है और मोह भी हमारे साथ जाने वाला नहीं है। हर प्राणी अपने संस्कार लेकर आया है और अपने संस्कार लेकर चला जाएगा। फिर आप उनके मालिक कैसे हुए? संपत्ति जितनी आप खा सकते हैं और जितनी इस्तेमाल कर सकते हैं, उतनी ही तो ले सकते हैं। बाकी जमीन पर ही छोड़नी पड़ेगी, चाहे संबंधियों के लिए छोड़ें, चाहे उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ें और चाहे पुलिस वालों के लिए छोड़ें। तो जब छोड़नी ही पड़ेगी, तो आप उन लोगों के लिए क्यों नहीं छोड़ते, जो कि इसके हकदार हैं। आप उतना ही क्यों न कमाएँ, जिससे कि आप ईमानदारी के साथ अपने लोक और परलोक को बनाए रखें। आप अपने खर्चे उतने ही क्यों न रखें, जिससे कि सीमित आजीविका में ही आदमी का गुजारा चल सकता है। त्याग, वैराग्य, भक्ति तब आती है, जब आदमी मृत्यु का स्मरण करता है। आप मृत्यु का स्मरण कीजिए। मृत्यु का स्मरण करना बहुत जरूरी है। ॐ कृतो स्मरः.....। 
किसको याद करो, मौत को याद करो।
'भस्मीभूतमिदं शरीरं' अर्थात यह शरीर भस्मीभूत होने वाला है।

आप इस मरने वाले शरीर के बारे में ध्यान रखें कि यह कल या परसों मिट्टी में मिलने वाला है। फिर हम क्यों ऐसे गलत काम करें, जिससे हमारी परंपरा बिगड़ती हो, पीछे वालों को कहने का मौका मिलता हो, धिक्कारने का मौका मिलता हो और आपकी आत्मा को असंतोष की आग में जलने का मौका मिलता हो। आप मत कीजिए ऐसा काम। ये दोनों शिक्षाएँ आपको नया जीवन और नई मौत के स्मरण करने से मिल सकती हैं और कोई तरीका नहीं है। आप इन दो संध्यावंदन को भूलिए मत। दूसरे समय पर कीजिए। प्रातः काल तो यह चिंतन और मनन कीजिए–'नया जन्म नई मौत' 'और हर दिन को नया जन्म और हर रात को नई मौत।' इस मौत और जिंदगी के झूले में आप झूलते हुए अपने, कर्त्तव्य और बुद्धिमत्ता के बारे में विचार करेंगे, तो ऐसी हजारों बातें मालूम पड़ेंगी, जिसके आधार पर आपका जन्म सार्थक हो सके और आप अध्यात्मवाद के सच्चे अनुयायी और उत्तराधिकारी बन सकें।

हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत' की मान्यता लेकर जीवनक्रम बनाकर चला जाए तो वर्तमान स्तर से क्रमश: ऊँचे उठते चलना सरल पड़ेगा। मस्तिष्क और शरीर की हलचलें अंतःकरण में जड़ जमाकर बैठने वाली आस्थाओं की प्रेरणा पर अवलंबित रहती हैं। आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य इस संस्थान को प्रभावित एवं परिष्कृत करना ही होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में वही साधना बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है, जिसमें उठते ही नए जन्म की और सोते ही नई मृत्यु की मान्यता को जीवंत बनाया जाता है। प्रातः बिस्तर पर जब आँख खुलती है तो कुछ समय आलस को दूर करके शय्या से नीचे उतरने में लग जाता है। प्रस्तुत उपासना के लिए यही सर्वोत्तम समय है। मुख से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं पर यह मान्यता चित्र मस्तिष्क में अधिकाधिक स्पष्टता के साथ जमाना चाहिए कि "आज का एक दिन पूरे जीवन की तरह है, इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाना चाहिए। समय का एक भी क्षण न तो व्यर्थ गँवाया जाना चाहिए और न अनर्थ कार्यों में लगाना चाहिए।" सोचा जाना चाहिए कि "ईश्वर ने अन्य किसी जीवधारी को वे सुविधाएँ नहीं दीं जो मनुष्य को प्राप्त हैं। यह पक्षपात या उपहार नहीं, वरन विशुद्ध अमानत है, जिसे उत्कृष्ट आदर्शवादी नीति अपनाकर पूर्णता प्राप्त करने, स्वर्ग और मुक्ति का आनंद इसी जन्म में लेने के लिए दिया गया है। यह प्रयोजन तभी पूरा होता है, जब ईश्वर की इस सृष्टि को अधिक सुंदर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उपलब्ध जीवन-संपदा का उपयोग किया जाए। उपयोग के लिए यह सुर-दुर्लभ अवसर मिला है। 

नींद का त्यागकर नित्य कर्म में लग जाना चाहिए। थोड़ी गुंजाइश हो तो उठने से लेकर सोने के समय तक की दिनचर्या इसी समय बना लेनी चाहिए। यों नित्य कर्म करते हुए भी दिनभर का समय विभाजन कर लेना कुछ कठिन नहीं है। ऊर्जा के साथ काम निपटाए जाएँ तो कम समय में अधिक काम हो सकता है। उदासी से ही समय का भारी अपव्यय होता है, योजनाबद्ध दिनचर्या बनाई जाए और उसका मुस्तैदी से पालन किया जाए तो ढेरों समय बच सकता है। एक काम के साथ दो काम हो सकते हैं। जैसे आजीविका उपार्जन के बीच खाली समय में स्वाध्याय तथा मित्रों से परामर्श हो सकता है। परिवार व्यवस्था में मनोरंजन का पुट रह सकता है। निद्रा, नित्य कर्म, स्वाध्याय, उपासना, आदि कार्यों में कौन, कब, किस प्रकार कितना समय देगा? यह हर व्यक्ति की अपनी परिस्थिति पर निर्भर है, पर समन्वय इन सब बातों का रहना चाहिए। दृष्टिकोण यह रहना चाहिए कि आलस्य-प्रमाद में एक क्षण नष्ट नहीं करना चहिए, और सारी गतिविधियाँ इस प्रकार चलती रहें, जिनमें आत्मकल्याण, परिवार निर्माण एवं लोकमंगल के तीनों तथ्यों का समुचित समावेश बना रहे। 

जल्दी सोने और जल्दी उठने का नियम जीवन-साधना में रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बनाना ही चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त का समय अमृतोपम है, उस समय किया गया हर कार्य बहुत ही सफलता पूर्वक संपन्न होता है। जो भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रतीत होता हो, उसे उसी समय में करना चाहिए। सवेरे जल्दी उठना उन्हीं के लिए संभव है जो रात्रि को जल्दी सोते हैं। इस मार्ग में जो अड़चनें हों उन्हें बुद्धिमत्तापूर्वक हल करना चाहिए, किंतु जल्दी सोने और जल्दी उठने की परंपरा तो अपने लिए ही नहीं पूरे परिवार के लिए बना ही लेनी चाहिए। रात्रि को सोते समय वैराग्य एवं संन्यास जैसी स्थिति बनानी चाहिए। बिस्तर पर जाते ही यह सोचना चाहिए कि निद्राकाल एक प्रकार का मृत्यु विश्राम है। आज का नाटक समाप्त, कल दूसरा खेल खेलना है। परिवार ईश्वर का उद्यान है उसमें अपने को कर्त्तव्यनिष्ठ वक्ति की भूमिका निभानी थी। शरीर, मन, ईश्वरीय प्रयोजनों को पूरा करने के लिए मिले जीवन-रथ के दो पहिये हैं, इन्हें सही राह पर चलाना था। 

प्रातः उठते समय नए दिन की मान्यता जीवनोद्देश्य की स्पष्टता तथा सुव्यवस्थित दिनचर्या बनाने का कार्य संपन्न करना चाहिए। रात्रि को सोते समय मृत्यु का चिंतन, आत्मनिरीक्षण, पश्चात्ताप और कल के लिए सतर्कता, वैरागी एवं संन्यासी जैसी मालिकी त्यागने की हलकी-फुलकी मनःस्थिति लेकर शयन किया जाए। दिनभर हर घड़ी ऊर्जा और आनंद के साथ प्रस्तुत कार्यों को निपटाया जाए। भीतरी दुर्भावनाओं और बाहरी दुष्प्रवृत्तियों के उभरने का अवसर आते ही उनसे जूझ पड़ा जाए और निरस्त करके ही दम लिया जाए। यह है वह जीवन-साधना जिसमें चौबीसों घंटे निमग्न रहकर इसी जीवन में स्वर्ग जैसे उल्लास, आनंद और मुक्ति जैसे आनंद का हर घड़ी अनुभव करते रहा जा सकता है।

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