गौ की उपयोगिता को आज सबके सामने रखने जरूरत है।जो गौ भारत देश के कृषि व्यवस्था का मेरुदंड के रूप शक्ति संचालन कर भरण पोषण करती थी वहीं गौ माता का स्थान घरों से नीलकर रास्तों पर हो चुका हैं। मानव इतना ही आधुनिक नही हुआ है ,अपने अथित पर गर्व कर सके ,यह कठोर शब्दों में निंदा प्रस्तुत हो रही हैं। हमारी भारतीय संस्कृति गौ पर आधारित संस्कृति है जो हमे वर्तमान में जीना सिखाती है तो भूतकाल से वास्तविकता ,भविष्य में आशा प्रदान करती है।गौ केवल प्राणी नहीं है ,बल्कि एक विज्ञान का भंडार है जो मानव की स्वस्थता से कृषि तक का अदभूत प्रदर्शन है।
हमे इस विज्ञान को प्रकाशित करना होगा।भारतीय संस्कृति एक विशाल ह्रदय का परिचय संपूर्ण विश्व को कराती है। गौ को हमे उसका हक दिलाना होगा।मानव जीवन भौतिक परिस्थिति से आधुनिक हो रहा है तो भीतर से खोखला बनते जा रहा हैं। गौ माता की उपलब्धी केवल शास्त्रों तक सीमित नहीं है ,बल्कि जीवन के हर एक पैलू पर सत्य होती दिखाई देती है। जिसके प्रमाण आज सबके सामने है नवजात शिशु के माता के मृत्यु के बाद वह शिशु केवल गौ माता के दूध पर ही जीवित रहा जाता हैं। इसी लिए प्राणियों में गौ को ही माता का दर्जा प्राप्त है। यह हमारे भारतीय संस्कृती का परिचय है।जिसमे आदर और संयमित जीवन शैली का दर्शन हैं।इसलिए गौ भारत के प्रातः स्मरणीय में से एक देवता है। जिसमे गौमूत्र के रूप में मां काली है, तो गोमय में महालक्ष्मी का वास है। गौघृत में वास करती मां सरस्वती यज्ञ में वाणी बनकर मंत्र रूप में देवताओं को पुष्ट करती है। इसलिए गौ सर्वश्रेष्ठ है।
गौ शब्द का यौगिक आशय लिया जाए तो,
"गच्छति इति गौ": जो चलते रहती है चलते ही रहती है, जो गति को दर्शाती है। जो गति को सामान्य भाषा में ऊर्जा कहते है। ऊर्जा को ही एनर्जी कहा जाता है जो वाइब्रेशन का रूप है। जहां गति है वह ऊर्जा है। गौ को सकारात्मक शक्ति का भंडार कहा जाता है। जिसका हम जिक्र करते है E= mc2.
भारतीय संस्कृति में पंचमहायज्ञ का विधान है जिसमे से एक हिस्सा गौ का निकालकर ऋषियज्ञ संपन्न किया जाता है।
लक्ष्मीश्च गोमये नित्य पवित्रा सर्वामंगला।
गोमया लेपण तस्मात कर्तव्य पांडू नंदन।।
गौ के गोमय का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता है। गाय के गोबर की उपयोगिता पर जितना शोध भारत के मनीषियों ने किया है, संभवतः विश्व में उतना अन्यत्र कहीं नहीं हुआ। आधुनिक वैज्ञानिक भी अब इस पवित्र पदार्थ के गुणों को स्वीकारने लगे हैं। उनके अनुसार गाय का गोबर असंक्रामक (Non-conductor) है और इसमें विद्युत निरोधक शक्ति है। यह भी देखा गया है कि आकाश से गिरनेवाली बिजली गोबर के ढेर पर गिरते ही निष्क्रिय (Freege) हो जाती है। गोबर में 'फास्फोरस' नामक तत्त्व बहुतायत से पाया जाता है। इस तत्त्व में कई संक्रामक रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने की शक्ति होती है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह भी पता चला है कि गोबर से लिपे गए घरों में परमाणु ऊर्जा के घातक प्रभाव भी नष्ट हो जाते हैं।
प्राचीन भारतीय प्रथा के अनुसार किसी मनुष्य की मृत्यु होने पर घर-आँगन को गोबर से लीपा जाता था, ताकि मृत शरीर के विभिन्न प्रकार के संक्रामक रोगों के कीटाणु नष्ट हो जाएँ और घर के कुटुंबजनों के स्वास्थ्य की रक्षा हो सके। कुष्ठ रोग के उपचार में भी गोमय लाभप्रद होता है। गाय के गोबर में जीवाणु और विषाणुओं को नष्ट करने की क्षमता होती है। प्राचीन मान्यता के अनुसार क्षयरोग उपचार करनेवाले सेनिटोरियम में गाय का गोबर रखने से उसकी गंध से टी.वी. के कीटाणु मर जाते हैं। कपिला नामक गौ के दूध में काली तुलसी के पत्रों का सेवन से कैंसर ठीक हो जाता है। 40 दिन नित्य गौमूत्र खाली पेट सेवन करने से दमा श्वसन से जुड़ी हुईं बीमारी समूल नष्ट हो जाती है। कीटाणु नष्ट करने, दुर्गंध दूर करने के लिए गाय का गोबर अच्छी-से-अच्छी फिनाइल से भी अधिक प्रभावकारी है। फोड़े फुंसी, खुजली, रक्तदोष आदि में भी गोमय बहुत प्रभावकारी होता है। गाय के गोबर से बना साबुन चर्म रोगों में लाभप्रद सिद्ध हुआ है। गोमय से बनी धूप-अगरबत्ती वातावरण को शुद्ध करने में उपयोगी पाई गई है।
गोबर का और प्रभावी उपयोग बायो गैस है, जिससे भारत के कई गाँवों में सामाजिक प्रगति देखी गई है। गोबर के उपलों से उठनेवाला धुआँ प्रदूषण पर नियंत्रण रखता है, साथ ही वायुमंडल में विद्यमान विभाक्त कीड़ों को भी नष्ट करता है। पहले होलिका दहन के लिए केवल गाय के उपलों का ही उपयोग होता था, जिससे वातावरण शुद्ध हो जाता था। उपलों की राख शरीर पर रगड़ने से मृतप्राय शरीर में भी रक्त प्रवाह ठीक हो जाता है। यह एक दुखद सत्य है कि आधुनिकता के नाम पर हम इस पवित्र पदार्थ के गुणों को उतनी मान्यता नहीं दे रहे।
जितना गोमय उपयोगी है। उतना ही गाय का घी औषधी के रुप में सक्षम है। सनातन कर्मकांड और साधारण पूजा-पाठ में गाय के घी के प्रयोग का विधान है। प्राचीन काल से भारत में गाय के अतिरिक्त और भी कई ऐसे पशु थे जिनके दूध से भी बनता था। ऐसे में मन में एक प्रश्न उठता है कि गाय के घी में ऐसा क्या विशेष है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने इसको इतनी प्रमुखता दी है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इस मान्यता के पीछे एक वैज्ञानिक सत्य है, जिसके कारण प्राचीन मनीषियों ने गाय के घी को ही चुना। यदि हम पाँच-छह प्रकार के भिन्न-भिन्न द्रव्यों के दीये जलाएँ तो हमें गाय के घी का वैज्ञानिक आधार आसानी से समझ आ जाएगा। इस प्रयोग के लिए अलग-अलग बंद कमरों में एक दीया भैंस के घी का, एक ऊँट के घी का, एक बकरी के भी का, एक याक के भी का, एक सरसों के तेल का, एक नारियल के तेल का एक मिट्टी के तेल का दीया जलाएँ और हर दीये के सामने एक-एक व्यक्ति को बैठा दें और उन्हें उन दीयों की लौ पर एकटक देखने के लिए कहें। आप देखेंगे कि कुछ समय बाद उन सबकी आँखों में जलन शुरू हो जाएगी। कुछ की आँखों में पहले तो कुछ की आँखों में कुछ देर बाद जलन अवश्य पैदा होगी।
परंतु जो व्यक्ति गाय के घी के दीये के सामने बैठा होगा, उसकी आँखों में जलन पैदा नहीं होगी, अपितु वह अपनी आँखों में शीतलता महसूस करेगा। इसका वैज्ञानिक कारण है कि गाय के घी के दीये के अलावा दूसरे द्रव्यों से जलनेवाले दीयों से जो धुआँ निकलता है, उसका उत्सर्जन वातावरण और मनुष्य की आँखों के लिए हानिकारक हैं, कुछ का कम तो कुछ का ज्यादा परंतु गाय का घी वातावरण व मनुष्य दोनों के लिए हितकर है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है, जिसे हमारे मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व जान लिया था।
इसके अतिरिक्त गाय के घी से हवन में दी गई आहुति से वातावरण की शुद्धि होती है। यही नहीं, यह परमाणु रेडिएशन से वातावरण की रक्षा करता है। गाय के दूध में सूर्य की किरणों का प्रभाव अधिक होता है, जिसके कारण इसका घी सूर्य की भाँति वातावरण को शुद्ध रखने में सहायक होता है। गाय के घी की इसका घी सूर्य की भाँति वातावरण को शुद्ध रखने में सहायक होता है। गाय के घी की इन्हीं विशेषताओं के कारण ऋषि-मुनियों ने इसका चयन सनातन पूजा-पाठ के लिए किया इस सत्य की छानबीन यदि आधुनिक मानव करना चाहे तो अवश्य करे। पर इस मान्यता को केवल रूढ़िवाद न कहे। यह विज्ञान पर सत्य साबित हो चुका हैं। और इस के ऊपर शोध कार्य निरंतर शुरू है। गौ की उपयोगिता को हमे जन तक पहुंचाकर मां प्रकृति को संरक्षित किया जाए।
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